डॉ0 हरि नाथ मिश्र

पहला-2
क्रमशः......*पहला अध्याय*
लच्छन सबहिं लगहिं बिपरीता।
सुनहु हे केसव मन भयभीता।।
      निज बंधुन्ह कहँ जुधि मा मारी।
      होवे कबहुँ न कुल-हितकारी।।
बिजय न चाहहुँ, नहिं सुख-भोगा।
अपुनन्ह बधि का राज-प्रयोगा।।
      हे गोबिंद मीत सुनु मोरा।
      निज कुल नास करन अघ घोरा।।
गुरुजन-ताऊ-चाचा-दादा।
बध निज सुतन्ह नास मरजादा।।
      सुनु मधुसूदन कबहुँ न मारूँ।
      तीनिउ लोक भोग तजि डारूँ।।
निज कुल-बध बस महि-सुख-भोगा।
होवै हे हृषिकेस कुभोगा ।।
       कुरु पुत्रन्ह बध सुनहु जनर्दन।
        मिलइ पाप पून्य नहिं बर्धन।।
बध करि अपुन्ह बन्धवहिं माधव।
बिजय होय बरु होय पराभव।।
       जदपि भ्रष्टचित, लोभ के मोहा।
       कुल बिनास करि लखहिं न द्रोहा।।
कुल बिनास मैं मानूँ पापा।
सुनहु जनर्दन,जुधि अभिसापा।।
      कुल-बिनास कुल-धर्म बिनासा।
       धर्म -नास कुल पाप-निवासा।।
सोरठा-जब बाढ़ै बहु पाप,दूषित हों कुल-नारि सब।
           सुनहु हे माधव आप,बर्ण संकरहिं जन्महीं।।
                          डॉ0हरि नाथ मिश्र
                            9919446372          क्रमशः.....

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