डॉ0 हरि नाथ मिश्र

बारहवाँ-3
    *बारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-3
निरखि-निरखि गोपी सभ कहही।
जियतयि अजगर जनु मग अहही।।
     कोऊ कहहि न अजगर इहवै।
     जनु ई गुफा जबर कोउ रहुवै।।
घोटी जदि ई हम सभ  धाई।
मरिहैं किसुन बकासुर नाई।।
    अस कहि हँसि-हँसि ताली पीटत।
    अजगर-मुहँ मा प्रबिसे दउरत।।
सकल गोप अरु बछरू सगरो।
प्रानहिं सभकर कइसे उबरो।।
    लगे सोचने किसुन-कन्हाई।
    सोचें इत-उत सकल उपाई।।
बछरू सहित सबहिं रह मुहँ तक।
तिनहिं न निगला अजगर अब-तक।
    जोहत रहा प्रबेसहि कृष्ना।
    जेहिका निगलि बुझाई तृष्ना।।
बका-पूतना किसुना घालक।
तासु बहिनि-माता कै मारक।।
     यहिं ते अघासुरै रह जोहत।
    मुहँ मा किसुन-प्रबेसइ होवत।।
गोपी-गोप-गाय-रखवारा।
कष्ट सभें कै भंजनहारा।।
    कृष्न दयालू अरु उपकारी।
    दीन-हीन-रच्छक-सुखकारी।।
जानहिं बछरू-गोप न माया।
अघासुरै जस उनहिं दिखाया।।
    निज भगतन्ह कै रच्छा हेतू।
    करिहैं जतनहिं कृपा-निकेतू।।
                डॉ0हरि नाथ मिश्र
                  9919446372

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