डॉ0 हरि नाथ मिश्र

दूसरा-2
क्रमशः.........*दूसरा अध्याय*
धरम-जुद्ध अह छत्री-कर्मा।
नहिं हे पार्थ औरु कछु धर्मा।।
     अवसर धरम-जुद्ध नहिं खोवै।
     सो छत्री बड़ भागी होवै।।
जदि नहिं करउ धरम-संग्रामा।
होय जनम तव नहिं कछु कामा।।
      कीरति-सीरति खोइ क सगरी।
      ढोइबो पाप क निज सिर गठरी।।
अपकीरति अरु पाप-कलंका।
मरन समान होय,नहिं संका।।
      तुम्ह सम पुरुष होय महनीया।
      बीर धनुर्धर  अरु  पुजनीया।।
निंदा-पात्र न होवहु पारथ।
धर्म-जुद्ध कुरु तुम्ह निःस्वारथ।।
     समर-मृत्यु सुनु,स्वर्ग समाना।।
     महि-सुख-भोग,बिजय-सम्माना।।
दृढ़-प्रतिग्य हो करउ लराई।
करउ सुफल निज जनम कमाई।।
      सुख-दुख औरु लाभ अरु हानी।
       बिजय-पराजय एक समानी।।
समुझि उठहु तुम्ह हे कौन्तेया।
लउ न पाप कै निज सिर श्रेया।।
       जनम-मरन-बंधन जन मुक्ता।
       करहिं कर्म निष्काम प्रयुक्ता।।
कर्म सकाम करहिं अग्यानी।
इन्हकर बुधि बहु भेद बखानी।।
        निस्चय बुधि, निष्कामहि कर्मी।
        अस ग्यानी जन होवहिं धर्मी।।
दोहा-निस्चय कारक एक बुधि,करै जगत-कल्यान।
        सुनहु पार्थ,निष्काम जन,होवहिं परम महान।।
                      डॉ0हरि नाथ मिश्र
                       9919446372       क्रमशः..........

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