ग्यारहवाँ-6
*ग्यारहवाँ अध्याय*(श्रीकृष्णचरितबखान)-6
एकमात्र रच्छक जग लोका।
सोक-ग्रस्त कहँ करैं असोका।।
सो प्रभु कृष्न औरु बलदाऊ।
बनि चरवाहा बछरू-गाऊ ।।
बन-बन फिरहिं अकिंचन नाईं।
लकुटि-कमरिया लइ-लइ धाईं।।
एक बेरि बन गाय चरावत।
सभ गे निकट जलासय धावत।
ग्वाल-गऊ-बछरू पी पानी।
करत रहे उछरत मनमानी।।
देखे सभें एक बक भारी।
किसुनहिं निगलत अत्याचारी।।
गिरे सबहिं भुइँ होइ अचेता।
कंसइ असुर रहा ऊ प्रेता।।
ब्रह्म-पितामह-पिता कन्हाई।
लीला करहिं सिसू बनि आई।।
उदर बकासुर मा जा कृष्ना।
लगे जरावन वहि बहु तिक्षना।।
बिकल होय तब उगला प्रेता।
बाहर निकसे कृपा-निकेता।।
पुनि निज चोंचहिं काटन लागा।
निरमम-निष्ठुर दैत अभागा।।
तुरत किसुन धइ दुइनउँ चोंचा।
कसि के फारे बिनु संकोचा।।
मरा बकासुर मचा कुलाहल।
गगनहिं-सिंधु-अवनि पे हलचल।।
जस कोउ चीरहि गाड़र-क्रीड़इ।
फारे प्रभू बकासुर डीढ़इ।।
मुदित होइ सभ सुरगन बरसे।
सुमन चमेली-बेला हरसे ।।
संख-नगारा बाजन लागे।
पढ़ि स्तोत्र कृष्न-अनुरागे।।
पुनि बलराम-ग्वाल भे चेता।
लखि के किसुन हते सभ प्रेता।।
सभ मिलि किसुन लगाए गरहीं।
मन-चित-हृदय मगन बिनु डरहीं।।
दोहा-लवटि आइ सभ गोपहीं,जाइ के निज-निज धाम।
अद्भुत घटना बरनहीं, किसुन-बकासुर-काम ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र।
9919446372
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