कुमार@विशु

अन्नपूर्णा हो तुम घर की।
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तुम  साँस हो मेरे जीवन की,
शोभा हो तुम घर-आंगन की,
तुम सरल हृदय गृहलक्ष्मी हो
अन्नपूर्णा हो तुम इस घर की।।
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है  त्याग  समर्पण जीवन में,
है   प्रेम  बसा  अन्तर्मन   में,
निश्छल सेवा का भाव लिए,
तपती रहती मन ही मन में।।

सहचरी सदा हो तुम नर की,
एहसास  दिए अपनेपन की,
जीवन पथ को आसान करे,
प्रेरणास्रोत  बनकर  नर की।।

गृह  प्रगति  देख तुम हर्षाती,
घर को तुम स्वर्ग बना जाती,
पोषित करती परिवार सदा,
सो अन्नपूर्णा हो तुम घर की।

तुम  धूरी  गृहस्थी जीवन की,
तुम दिव्यपुंज हो दिनकर की,
भरती  प्रकाश घर  आंगन में,
खुद दर्द  हृदय  सहती रहती।।

जीवनरथ का तुम हो पहिया,
बारिश हो सुखकर सावन की,
है  कठिन  साधनामय जीवन,
तुम सजग साधिका हो घर की।।

नर  जीवन  के   संघर्षों   में,
भरती हो शक्ति सदा रण की,
खुशियों  के  द्वार खुले तुमसे,
अन्नपूर्णा हो तुम इस घर की।।

कब सूरज ने जगते देखा है,
कब देखा  सोते निशिचर ने,
गृहजन को  सदा  जगाया है,
तेरे कंठ से निकले भजनों ने।।

सर्दी हो या बारिश का मौसम,
तपती दोपहरी  सा  है जीवन,
है  स्वार्थहीन  निर्मल  जीवन,
तुम निर्झर तरंगिणी सी पावन।।

वात्सल्य लुटाती माँ बनकर,
कली हो तुम हर आँगन की,
अर्धांगिनी सदा नर संग चले,
अन्नपर्णा हो तुम इस घर की।।

🙏कुमार@विशु
❣️स्वरचित मौलिक रचना

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