पिला दे!
मैं दुनिया को भूल जाऊँ,
मैं शोहरत को भूल जाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
देखो, वहाँ खड़े हैं,पग-पग पे वो लुटेरे,
वो न हो सके किसी के, न हो सके हमारे।
मैं वक़्त इस जहां में,क्यों व्यर्थ में गवाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
कोई क्यों नहीं समझता,कि क्यों जहां में आया,
औरों के आंसुओं से, दिन -रात क्यों नहाया।
वीरान हुई जो आँखें, किस हाथ से सजाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
वो खौफ़ में हैं रहते, जैसे आजकल परिन्दे,
महफूज़ न कली अब, बेलगाम हैं दरिंदे।
इस बढ़ रही हवस को, मैं किसे -किसे दिखाऊँ,
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
जब सोचता हूँ ये सब, मेरी आँख है छलकती,
जो उठ रहा धुंआ है, वो आग क्यों न दिखती।
फिर जख्म न हरा हो,मैं दर पे उसके जाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
ये काठ की है हंडी, बस एक बार चढ़ती,
उस झूठ से कहाँ तक,है ज़िन्दगी ये सजती।
मैं उसके कैमरे से, तुझको कहाँ छुपाऊँ।
कुछ इस तरह पिला दे,
मैं जहां को भूल जाऊँ।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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