दुर्गा प्रसाद नाग - आज का सम्मानित कलमकार

आज का सम्मानित कलमकार 

नाम– दुर्गा प्रसाद नाग
माता– श्रीमती कांती देवी
पिता– श्री लक्ष्मी नारायण
पता– ग्राम,पोस्ट व ब्लॉक– नकहा
जिला–लखीमपुर खीरी
(उत्तर प्रदेश)262728
मो०–9839967711
शैक्षिक योग्यता– स्नातक
वृत्ति–कला अध्यापक (PTA)
1-🌹🌹🌹 गीत 🌹🌹🌹

स्वर तुम्हारा अगर मुझको मिलता रहा,
गीत मेरे यूं ही संवर जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
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खुशबू आएगी कागज के फूलों से भी,
लोग देखेंगे भी, लोग जानेंगे भी।
आश बंधती नहीं, लाख बन्धन में भी,
लोग समझेंगे भी, लोग जानेंगे भी।।

गर तुम्हारा सहारा यूं मिलता रहा,
पत्थरों के हृदय भी पिघल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
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स्वर की देवी ने मुझपे करम जो किया,
हम झुकेंगे नहीं, लोग कुछ भी कहें।
अपनी किस्मत में कांटे हों फिर भी सही,
लोग जैसे भी चाहें, चमन में रहें।।

मां, तुम्हारी दया से चमन में ही तो,
सूखी डाली में भी फूल खिल जाएंगे।
लोग कहते हैं पागल मुझे आज मां,
कल उनकी नजर में उभर जाएंगे।।
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2-
🥀🥀🥀((गीत))🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

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जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
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मेरी भावनाएं, ये शुभकामनाएं,
तेरे साथ में हैं, तेरे साथ जाएं।

तेरे पथ के कांटे, बने पुष्प सारे,
तेरे रास्ते में दिए जगमगाएं।।

यही कामना है सदा मुस्कराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
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ये जीवन समर है, इसे लड़ना होगा,
कदम से कदम तक, तुम्हे बढ़ना होगा।

अंधेरा सफर है, उजाले की खातिर,
अमर हैं किताबें, तुम्हे पढ़ना होगा।।

किसे जीतना है, व किसको हराना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
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कदमों को अपने भटकने न देना,
ये लंबा सफर है, बहुत दूर मंजिल।

हो तन्हा सफर में, ये महसूस करना,
भले हो तुम्हारे हर ओर महफ़िल।।

कहीं हंस न पाए तुम्हे, ये जमाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
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माता पिता व गुरु के वचन को,
कभी भूलकर भी न तुम भूल जाना।

न अभिमान करना कभी भी, स्वयं पर,
किसी की डगर पे न कांटे बिछाना।।

सदा रोशनी के दिए तुम जलाना।
सीमा पे जाके हमें भूल जाना,
जाने दो इन्हे सीमा पे जाना।।
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3-
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दुनिया के रीति रिवाजों से,
एक रोज बगावत कर बैठे।

महबूब की गलियों से गुजरे,
तो हम भी मोहब्बत कर बैठे।।
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मन्दिर-मस्जिद से जब गुजरे,
पूजा व इबादत कर बैठे।

जब अाई वतन की बारी तो,
उस रोज सहादत कर बैठे।।
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दुनिया दारी के चक्कर में,
जाने की हिम्मत कर बैठे।

गैरों के लिए हम भी इक दिन,
अपनों से शिकायत कर बैठे।।
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जो लोग बिछाते थे कांटे,
हम उनसे इनायत कर बैठे।

पीछे से वार किये जिसने,
हम उनसे सराफत कर बैठे।।
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हमने अहसानों को माना,
वो लोग अदावत कर बैठे।

हर बात सही समझी हमने,
वो लोग शरारत कर बैठे।।
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उनके जीवन की हर उलझन,
हम सही सलामत कर बैठे।

पर मेरी हंसती दुनिया में,
कुछ लोग कयामत कर बैठे।।
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4- 🥀🥀🥀 गज़ल 🥀🥀🥀
🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹

औरों के लिए औरत.....
कहते हैं सभी गैरत......

करती है प्यार जिसे
क्यों पाती है नफ़रत

दुनिया ये कहती है
इक जज़्बा है औरत

जो कर न सके कोई
वो कर सकती औरत

इंसान खिलौना है
उस्ताद तो है औरत

इंसान को दुनिया में
पैदा करती औरत

जो लोग समझते हैं
कमजोर है हर औरत

हर मोड़ पे मिलती है
उन लोगों को जिल्लत

औरत वो शोला है
देती है जला नफ़रत

इंशा जो इबादत है
मंदिर- मस्जिद औरत

औरत वो तराजू है
जो तौलती है उल्फत

इक पलड़े में बदनामी
इक पलड़े में है शौहरत
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5- वो किताब अब भी जिंदा है...
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जिस पर तेरा नाम लिखा है,
रंग बिरंगे फूलों जैसा।

जिस पर मेरा दर्द लिखा है,
रेगिस्तान के शूलों जैसा।।

कितनी मिन्नत की थी मैने,
तब तुमने वो नाम लिखा था।

अपने आंसू की स्याही से,
सुबह-ओ-शाम लिखा था।।

मेरे जीवन की सांसों का,
एक वही स्वर- सजिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
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जिसमें इक "तस्वीर" है तेरी,
जिससे हंसकर बात करूं मैं।

जिसमें इक तकदीर है मेरी,
जन्नत दिन और रात करूं मैं।।

कितनी कोशिश की थी मैने,
तब तुमने तस्वीर वो दी थी।

उससे वक्त कटेगा मेरा........,
समझो बस "शमशीर" वो दी थी।।

सारे पन्नों के समाज में,
जैसे वो भी बासिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
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जिसमें एक गुलाब रखा है,
मरा हुआ है, सूख चुका है।

अपनी अंतिम सांसे देकर,
स्वाभिमान को फूंक चुका है।।

कितनी चाहत की थी मैने,
तब तुमने वो फूल दिया था।

सूनी आंखों में चुभता है,
ऐसा तुमने शूल दिया था।।

खुशबू उसकी अभी अमर है,
लेकिन फूल नहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
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जिसके सीने पर रखा वो,
लाल- कलम अब भी रोता है।

जैसे इक मां के आंचल से,
"लाल" लिपटकर के सोता है।।

कितनी इज्जत की थी मैने,
तब तुमने वो कलम दिया था।

लिखने को ये गीत अधूरा,
तुमने साज-ए-अलम दिया था।।

तुम्हीं बताओ कैसे लिख दूं ,
तेरा प्यार कहीं जिंदा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
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कितनी बार कहा था तुमसे,
मुझको प्रिया गीत वो लिख दो।

मेरा मन बहलाने को ही,
मुझको पागल मीत ही लिख दो।।

कितनी हिम्मत की थी हमने,
तब तुमने वो गीत लिखा था,

याद रहे मुझको जीवन भर,
ऐसा स्वर- संगीत लिखा था।।

आज जुदा हो जाने पर भी
"दुर्गा" तुमसे शर्मिन्दा है।

वो किताब अब भी जिंदा है...
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दुर्गा प्रसाद नाग
नकहा- खीरी
मोo- 9839967711

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