जया मोहन

कविता
छोड़ चला
एक ही आवाज कानो में आती है बार बार
और हम सबको करती है आगाह
इस दुनियां की नाट्यशाला में अपना अभिनय पूरा करके जाना सभी को है
एक ही मंज़िल पर छोड़ इस जहाँ को तोड़ ममता मोह को
साथ न ले जा पाओगे
धन दौलत का अंबार
याद किया जायेगा तेरा
अच्छा य बुरा व्यवहार
क्यों गर्व दिखाता है प्राणी
क्या जरा धन या  ज़मीन के झगड़े
तेरी बताते नही नादानी
अभी भी सुधर जा अभी भी वक्त है
वर्ना चार लोगों के कंधों की पालकी पर अरमानों को समेटे
बैठे की जगह लेटे जाएगा तू श्मशान घाट और कानों में आएगी यही आवाज़
छोड़ चला जीव एक दुनियां का तख्तों ताज
आ रही एक ही आवाज 
कानो में बार बार

स्वारचित

जया मोहन
प्रयागराज

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...