सांस्कृतिक यात्रा
वेद की ऋचाएँ जहाँ गुंजती थी चारो ओर ,
आज चहुँदिश वहाँ वेद का विरोध है।
संस्कार का ही जहाँ रक्त का प्रवाह था जी,
आज दुष्टता ही पथ में बना अवरोध है।
मंत्र - तंत्र - यंत्र यज्ञध्वनि जहाँ गुंजती थी,
वहाँ जग अश्लीलता का चंकाचौध है।
बहती थी सरिता हृदय में जहाँ प्रेम का जी,
हृदयहीन मानव में भरा काम क्रोध है।।
भारती की आरती उतारते थे देव जहाँ,
वहाँ लोग भारती के खींच रहे चीर हैं।
आन मान शान में कटाते वीर शीश जहाँ,
वहाँ देश बेचके भी आत्मविभोर हैं।
शांति सद्भावना का फैलाया संदेश वहाँ,
जातिवादी ज्वाला अब जलाती चहुँओर है।
राम की धरा पे जहाँ धर्म का था बोलबाला,
आज वहाँ गुँजता विधर्मियों का शोर है।।2।।
घूँघट की ओट से जो चाँद झाँकता था कभी,
जाने कैसे बादलों के बीच चाँद खो गया।
शर्म का जो गहना था नारियों का साड़ी बीच,
जाने कैसे नग्नता का भेष भूषा हो गया।
तात मात भ्राता जैसी बोली शब्दकोष से ही,
जाने कैसे डैड माॅम वाली भाषा हो गया।
चौखट की शान वाली संस्कृति महान थी जो,
वहाँ पर नशेड़ी ये संतान कैसे हो गया।।3।।
वचन का मोल जहाँ प्राण से चुकाये गये,
वहाँ पे वचन बिनमोल बिक जाते हैं
मित्रता में जहाँ कृष्ण राजपाट तक दिए,
वहाँ स्वार्थपरता में गले कट जाते हैं।
नारी के सम्मान हित जहाँ कुरूक्षेत्र सजा,
वहीं नित नारियों के शील लूट जाते हैं।
भाई हित भाई जहाँ त्यागे राजपाट सब,
भाई वहाँ भाई के अब शीश काट लेते हैं।।4।।
कैसा है विकास और कैसी ये प्रगति हुई,
आज चहुँओर कैसी छायी ये उदासी है?
कहाँ पे खड़े थे हम कहाँ आ गये हैं हम,
जहाँ दानवी प्रवृत्ति नर रक्त प्यासी है ?
सांस्कृतिक यात्रा में संस्कृति छोड़ दिए,
इसीलिए सत्य आज झूठ की ही दासी है।
छलछद्म द्वेष औ पाखण्ड का है राज यहाँ,
धर्म और ईमान यहाँ रोज बिक जाती है।।5।।
✍️कुमार@विशु
✍️स्वरचित मौलिक रचना
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