*मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय*
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय,
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।
पाप- पुण्य की बँधी गठरिया,
धरी शीश पर झुकी कमरिया ,
ओढी-ढाँकी सगरी करनिया,
मटमैली हुई उजली कमरिया,
ओढी़ नहि पुनि जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।
कोख में प्रभु ने भेजा जब था,
नाम उसी का रटता तब था ,
आँख खुली जब देखी दुनियाँ,
सब भूली पिजरे की चुनियाँ,
मोह विवश होइ जाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।
माया ने क्या खेल रचाया,
जग व्यवहार समझ नहि आया,
मोह पाश अतिशय है भाया,
और घेरती जाती माया,
माया हिय भरमाय,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय।
भव बन्धन में जकड़ गया जब,
तृष्णा अगन में झुलस गया तब,
ये माया कब पीछा छोडे़,
विपदाओं से नाता जोडे़,
ठगा ,लखत रहि जाय ,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।
हिरनी जैसा मन अति व्याकुल,
भटकत निसदिन होकर आकुल,
मन सन्तोष परम धन नाही,
धीरज धरत नाहि मन माही
हाथ मलत रहि जाय,
मुसाफिर खडा़-खडा़ लुट जाय।
प्रियतम का घर पीछे छूटा,
प्रेम का बन्धन लगता झूठा,
कौन है ?अपना कौन पराया,
जग व्यवहार समझ नहि आया ,
संग में कुछ ना जाय ,
मुसाफिर खडा़ -खडा़ लुट जाय...
बहुत विचारा ,सोचा समझा,
उलझन मन की सका न सुलझा,
अन्त समय जब निकट है आया ,
हरि सुमिरन ही अधिक सुहाया,
अँखियन नीर बहाय,
मुसाफिर खडा़ खडा़ लुट जाय।
गठरिया सम्भले ना सम्भराय।
.स्वरचित-
डाॅ०निधि त्रिपाठी मिश्रा,
अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ।
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