रवि रश्मि अनुभूति

     डर                 अतुकांत 
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पहले जंगल में रहने के लिए डर लगता था 
अब घर में रहते हुए डर लगता है 
घर में मुक्त नहीं आकांक्षाएँ , भावनाएँ 
बंदी हैं मानसिक संवेदनाएँ 
यहाँ तो हर चिंगारी में 
समाया ज्वाल लगता है 
अब तो घर में रहते हुए डर लगता है ।
संस्कृति और व्यवस्था के लिए 
कुछ कहना भी है पाप 
सुरक्षित नहीं मासूमों से भी 
सम्मान का अपना आप 
अब तो हर कदम पर उनका 
भटका ख़्याल लगता है 
अब घर में रहते हुए डर लगता है । 
चलो , महत्त्वाकांक्षाओं को 
कहीं समुद्र में डुबो दें 
बिन आस , बिन सम्बल 
निश्चिंत कुछ देर तो जी लें 
इन घुटन भरे दायरों में 
मरना मुहाल लगता है 
अब घर में रहते हुए डर लगता है ।
यूँ तो समझाने से स्वयं को 
कुछ होना नहीं है 
बुज़ुर्गों का बोझ 
नई पीढ़ी ने ढोना नहीं है 
अनुशासनहीनता का  इन्हें 
नहीं कोई मलाल लगता है 
अब तो घर में रहते हुए डर लगता है ।
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रवि रश्मि  ' अनुभूति  '
मुंबई   ( महाराष्ट्र ) ।
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