विषय - पितृदिवस
#विधा -मुक्त(पद्य)
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मैं हर बार जब मायके से विदा होती थी
पिता रखते थे मेरी मुट्ठी में कुछ रुपए
चुपचाप...….
मैं देर तक उन्हें भींचे रहती थी
मुझे पता था
ये सिर्फ कुछ रुपए नहीं थे
ये पिता के हृदय की अकुलाहट थी
कि उनकी बेटी उपेक्षित न रहे...
ये पिता की मासूम संतुष्टि थी
कि उनकी बेटी को कुछ कमी न हो...
ये पिता की निरीह सी परवाह थी
कि नज़रों से दूर बेटी सुरक्षित रहे...
मैं मुट्ठी में भिंचे वो भीगे रुपए
रखती थी पर्स में
बगैर गिने....
मैं उन्हें यथासंभव खर्च नहीं करती
मुझे पता था
वे मेरे लिए सिर्फ कुछ रुपए नहीं
बल्कि मेरी आश्वस्ति थे.....
मेरे पिता के मजबूत साये की आश्वस्ति.....!!
" प्रतिभा पाण्डेय"
प्रयागराज उत्तर प्रदेश
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