कुमकुम सिंह

जमाने से इतना मिले दर्द गहरा ,
छुपाना है मुश्किल 
लगे  उस पर पहरा।
 कहाँ से मैं ‌ लाऊँ बता इश्क का इल्म,
 यहाँ जख्म ही जख्म है बस भरा।
 सोचा सुकूनों की हो जिंदगी कुछ ,
यहाँ मोड़ पर दर्द दिखता  घनेरा।
               बस्ती है खाली सुकूनों का संकट,
              नहीं  इश्क वालों का दिखता बसेरा।
                यहाँ प्रेमियों की कमी है  धरा पर ,
                यहाँ नफरतों का बस है उगता सबेरा।
कहाँ से मैं लाऊँ श्री राधा की प्रतिमा ,
कहाँ से मैं कान्हा की वंशी का फेरा।
कहाँ से मैं लाऊँ श्री मीरा सी त्यागी,
जहाँ काम दोषों का है ना जखीरा।
                   कभी प्रेम के थे पुजारी यहाँ पर,
                    कभी प्रेमियों के था मस्तक पर शेहरा ।
                   नहीं प्रेम की मूर्तियाँ अब हैं दिखतीं,
 उदासीन दिखता है प्रेमी का चेहरा।।
प्रेम का अर्थ निस्वार्थ होता है  समझो,
जहाँ स्वार्थ होता वहाँ प्रेम बहरा।
करते सभी प्रेम की बात केवल,
चलते बहुत दाव भीतर से गहरा।

          कुमकुम सिंह

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