कड़वा सच
आंख खोलकर देख प्यारे
जगत मुसाफिर खाना है
राजा रंक पुजारी पंडित
सबको एक दिन जाना है
कंचन जैसी कोमल काया
तुरंत जलाई जायेगी
कोई न तेरे साथ चलेगा
काल तुझे भी खायेगा
जर्रे जर्रे पर मूरत भगवान की
क्यों भूल गया, उस मालिक को
इस झूठे जगत की माया में
भूला उस घर को, जहां वापिस जाना है
क्या लेकर तू आया जग में
हाथ पसारे ही जाना है
दो चार दिनों की चांदनी है
फिर रात अंधेरी आती है
तेरा धन दौलत माया पत्नी
सब यहां ही रह जायेंगे
क्यों डूबा है,इन झमेलों में
दो चार दिनों का मेला है
आंख खोलकर देख प्यारे
जगत मुसाफिर खाना है
समय बड़ा बलवान है,जगत में
सोच समझ लें रे मन मूरख
संसार में पार उतरने को
बस नाम हरि का काफी है
ये वायदा करके आया था जग में
तुझे याद करूंगा जीवन भर
कुछ कर लें,पार उतरने को
आखिर में पछताएगा
आंख खोलकर देख प्यारे
जगत मुसाफिर खाना है
जगत मुसाफिर खाना है
नूतन लाल साहू
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें