कविता
अंतर्मन
2.6.2021
अंतर्मन का कोलाहल
जब हद से बढ़ जाता है
तब मौन मुखरित होता है
मन फिर सबकुछ पा जाता है ।
सुन हृदय की बात जरा
मन को अपने साधो
ये जग बहुत ही सुन्दर है
बात हमें बतलाता है ।
जीने के लिए जरूरी जितना
वो ईश्वर राह चलाता है
इच्छाओं की अभिलाषा
जीवन को भटकाता है ।
थोड़ा बोलो,थोड़ा सा गुनो
सोच समझ कर आगे बढ़ो
जीवन जीना है बहुत सरल
अतीत हमें बतलाता है ।
अपने बचपन को याद करो
ज्यादा की न थी अभिलाषा
जितना पाया खुश रहे सदा
सखि-सखे के संग बांटा ।
कमी कभी न तब देखी
न जीवन इधर उधर भागा
इच्छाएं थी बहुत सीमित
और संग थी प्रेम की परिभाषा।
सब सच्चे थे जो अपने थे
उनसे ही लड़े और प्रेम किया
अब क्यों न विचार रहे ऐसे
अब क्योंकर जीवन कठिन हुआ।
अब आत्म निरीक्षण जरूरी है
स्वयं की पहचान जरूरी है
क्या चाहते हो तुम बन मानव
बस एक सद्भाव जरूरी है ।
अपने मन को पहचानो तुम
उसकी ही बात को मानो तुम
कोई काम बुरा नहीं करना
ये जीवन सरल बना लो तुम
हो विपदा में जब भी कोई
तब संकट उसका टारो तुम
संजीवनी न ला पाओ तो
जीवन आस बंधा दो तुम ।
शिव को मन से पहचानो तुम
विष शब्दों का,कंठ में धारो तुम
फिर मुश्किल न कभी कोई होगी
बस अंतर्मन पहचानो तुम ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
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