कविता
रावण उवाच
मैं रावण हूँ, दंभी हूँ, अभिमानी हूँ
पर तुम सबसे प्रचंड ज्ञानी हूँ
तुम मूर्ख की तरह मुझे हर वर्ष जलाते हो
खुशियां मनाते हो
क्यों किया राम से युद्ध नही जानते हो
मैं तुम्हारी तरह स्वार्थी नही
तुम अपने परिवार को नही बचाते हो
अपने सुख में लिप्त रहते हो
इस जन्म के सुख को ही अन्तिम मानते हो
ऋषि पुलत्स्य दानवों से छले गए थे
बेकसूर होने पर भी राक्षस होने का श्राप पाये थे
विद्वान होकर भी मैं राक्षस कहलाया
मैं नादान नही था जो पुत्र पौत्रों को मरवाया
मैं जानता था राम ही उद्धारक है
इसीलिए उन्हें लड़वाया था
उनके हाथों मारे जाने पर उन्हें श्राप मुक्त हो मोक्ष दिलाया था
उनका अगला जन्म सफल बनाया था
राम सत्य निष्ठा परोपकार की खान थे
मैं निवेदन भी करता तो वो हमें अकारण न मारते
इसीलिए माँ सीता का मैंने किया हरण था
रार करने पर संहार निश्चित था
यही हमारे लिए मुक्ति का मार्ग था
अरे तुम्हे जलाना है तो जलाओ
अपने अंहकार, नफरत,द्वेष को
परिवार की उन्नति की राह खोजो
मत डरो चुनने से उस राह को जो अंत करता है
अंत के बाद ही तो प्रारंभ का सूर्य उदय होता है
स्वारचित
जया मोहन
प्रयागराज
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