विद्या:- छंदमुक्त कविता
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❤️ "गाँव की पगडंडी" ❤️
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
कभी फैलती कभी सिकुड़ती,
कभी सीधी तो कभी है मुड़ती,
कहीं गीली तो कहीं सूखापन,
रहन बसन के लिए सबुरी मन,
सही समय पर ढलना सबको,
जीवन डगर चलना बतलाती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
कहीं किनारे हैं घने बाग बगीचे,
कहीं खड़ी हैं गेंहू धान बलियाँ,
कहीं अकड़े अड़े महलों दरीचे,
कहीं हँसती हैं गरीब झोपड़ियाँ,
मगर बीच मे बहती सरिता सी,
जीवन सुख दुःख बहाव बताती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
घोड़ा चढ़ जमीन्दार चले तो
है चलता चरवाहा हलधर भी,
कोई मोटर तो कोई बैलगाड़ी,
कोई चरण पादुका भूतल भी,
बढ़ना है सब साथ मे चलना,
सज्जन हित में कथा सुनाती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
संगत पंगत हैं चलतें मिलकर,
जैसे पानी संग में रंग अबीर,
चले है मौलवी चलें पंडित जी,
चले इस पर कवि दास कबीर,
हो पंथ अलग पर राह एक है,
रोज मानवता का पाठ पढ़ाती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
कभी जा खड़ी स्टेशन पर तो,
है कभी बजाती घण्टा देवालय,
वो कभी पढ़ाती विद्यालय तो,
कभी पहुँचा देती है मदिरालय,
मार्ग निमित हुँ चलना तुमको,
है गितासार हरपल समझाती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
कभी डोली विदा बिटिया रुलाती,
कभी वधु आगमन ढोल बजाती,
कभी नव कोंपल को घर ले आती,
कभी रामयात्रा अंतघाट पहुँचाती,
है यहां जीवन तो मरन भी यहीं है,
जीव जीवन जतरा चक्र समझाती,
मेरे गाँव की वो प्यारी पगडंडी,
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
है आज भी जैसे मुझे बुलाती।
🙏🙏
ममता रानी सिन्हा
तोपा, रामगढ़ (झारखण्ड)
(स्वरचित मौलिक रचना)
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