जया मोहन

व्यथा
आज फिर वो रोती हुई मेरे पास आई थी
बेटे ने उसे मारा बहते खून की धार दिखाई थी
देख कर मन हो गया दुखी
क्या औलाद पा कर भी लोग न होते सुखी
जिसके पास न हो वो औलाद के लिए रोता है
ऐसी औलाद से कई मन सुखी होता है
याद आ रही उसे वो बात पुरानी
खामोश ज़ुबाँ थी नैनो से बह रहा था पानी
कितने अरमान समेटे आयी थी प्रिय के घर
झूम उठी थी खुशी से जब पेट मे फूटी थी कोपल
हर पल उसके आने की राह जोहती थी
नरम नरम ऊनसे स्वेटर टोपी मोज़ा बुनती थी
एक खुशी मिली तो दूजी खो गई
गोद भरी थी पर मांग सूनी हो गई
खुशी में वो खुल कर न हँस सकी
न दुख में ज़ार ज़ार रो सकी
दुनिया की ठोकरे सहते हुए नन्हे को पाला था
आज नन्हे ने उसे घर से निकाला था
क्या इसी दिन के लिए लोग माँगते है संतान
इससे तो वो भले है जो है निसंतान
क्या सुख पाया जो जींवन तपाया है
नन्हे की मार ने ज़ख्म को हरा किया
सुनहरे सपनो से यथार्थ के धरातल पर पटक दिया

स्वरचित
जया मोहन
प्रयागराज

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...