मधुशाला
मधुशाला विक्षिप्त कर , करता बुद्धि विकार।
हानि करे सर्वस्व यह , जो आ जाए द्वार।
आदत इसकी है बुरी , जिसको लगती जान,
वह पीने मधुरस सदा , आए बारम्बार।।
मधुशाला जो भी गया, भूले वह सब फर्ज।
तन धन सारी क्षति करे, डूबे गहरे कर्ज।
लक्ष्मी रूठे व्यक्ति से, हो जब मदिरा पान,
सुख वैभव अरु स्वस्थता, भागे आए मर्ज।।
मधुशाला के द्वार को, नरक जान लोे आप।
काया की यह हानि कर, उन्हें दिलाए शाप।
घूँट- घूँट पीते रहे, यही औषधि रूप।
जब यह पीता है मनुज , खोए सब परिमाप।।
मधुशाला हरिवंश की , रचना एक महान।
भावों की अभिव्यक्ति में, वही दिलाए ध्यान।
पीने वाले को लगे, यही अलौकिक रूप,
और पिलाकर वह सदा , मधु बनता अनजान।।
*मधु शंखधर 'स्वतंत्र'*
*प्रयागराज*
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें