गौरव शुक्ल

कितनी जल्दी हार गए तुम!

तुमने तो सपने देखे थे नील गगन के पार चलेंगे;
तुम बोले थे चाँद सितारों पर करने अधिकार चलेंगे। 
मुट्ठी में सागर भरने का दंभ भरा था तुमने ही तो, 
ज्वलित आग पर प्रसन्नता से चरण धरा था तुमने ही तो। 

वह अदम्य साहस कैसे हो गया धूलिधूसरित बताओ? 
क्या  उद्योग किया कि सहजता से हर वचन बिसार गए तुम! 

कितनी जल्दी हार गए तुम! 

मुझसे बढ़कर तुमने किसको अपना माना था, बतलाना? 
मुझसे अधिक और किस पर अधिकार जताया, भी, जतलाना? 
जब जैसी मैंने इच्छा की तुमने वैसा रूप बनाया, 
 मुझ में बुरा लगा तुमको जो, मैं वह सभी त्याग कर आया। 

कितना मुझे सुधारा तुमने, कितना तुम्हें सँवारा मैंने;
मेरा कितना ऋण था तुम पर, कैसे उसे उतार गए तुम! 

 कितनी जल्दी हार गए तुम! 

तुमसे अधिक हृदय के अपने निकट किसे बिठलाया मैंने, 
गो, गोचर मन गया जहाँ तक, सब में तुमको पाया मैंने। 
 बाहर से यद्यपि लगता था, मेरा यह संसार संकुचित;
 पर मेरे मन के भीतर भीतर था यह अनंत तक विस्तृत। 

 टूटे तारे के समान ओझल हो गया दृगों से सब कुछ, 
 आज इंद्रियों की मेरी हर सीमा के हो पार गए तुम! 

 कितनी जल्दी हार गए तुम!

-गौरव शुक्ल
मन्योरा
लखीमपुर खीरी
मोबाइल - 7398925402

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