नूतन लाल साहू

आजकल

ढंडी हवाओं की झोंको में
सुबह सुबह
हरी घास पर टहलना
मुझे अच्छा लगता है
लेकिन गर्म चाय की
प्याली के साथ
अखबार की सुर्खियों में
जब पढ़ता हूं
अपहरण, बलात्कार
और मारकाट की
दर्जनों जघन्य घटनाएं
तब सिहर उठता है मेरा मन
और प्रश्न उठता है मेरे मन में
कि कब बंद होगा
जर, जोरू और जमीं के लिए
कत्लेआम
और खून बहाना
निर्दोष को सताना
क्या यही इक्कीसवीं सदी है
रंग रंगीले लोग
गिरगिट की तरह,रंग बदल रहे है
निजोन्मुख,स्वार्थरत
जानते ही नहीं है
प्यार का स्पर्श
और वाणी के मधु रस को
मानाकि जीवन एक कैनवास है
उस पर है, आड़ी तिरछी लकीरें
उन लकीरों से ही
बनते है, संवरते है
कुछ सजीव कुछ निर्जीव रिश्ते
पर प्रश्न उठता है मेरे मन में
शिक्षित और सर्व सुविधा संपन्न
वह आदमी
कब बनेगा, एक अच्छा इंसान
क्या यही इक्कीसवीं सदी है
आजकल ये क्या हो रहा है

नूतन लाल साहू

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