विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

1222-1222-1222-1222
हुई है जब से हासिल आपकी यह रहबरी हमको
अँधेरी राह में मिलने लगी है रौशनी हमको

हुआ इकरार जिस दिन से यहाँ अपनी मुहब्बत का 
निगाहों में तुम्हारी दिख रही है अब ख़ुशी हमको

न होते इस तरह मजबूर तो हम और क्या करते
बड़ी क़ातिल नज़र से देखता वो रोज़ ही हमको

हमें इक दूसरे के बिन नहीं है चैन अब हासिल 
कहाँ ले आई है दो पल की देखो दिल्लगी हमको

सितारे चाँद लाने की ये ज़िद छोड़ो भी बच्चों सी 
तुम्हारी बात पर आने लगी है अब हँसी हमको

रवायत तोड़ कर हमने नई क़ायम मिसालें कीं
रखेगी ज़हन में अपने हमेशा यह सदी हमको

थकन महसूस होती ही नहीं हमको कभी *साग़र*
तुम्हारे लम्स से मिलती है जो यह ताज़गी हमको

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
21/6/2021
रहबरी-मार्गदर्शन
रवायत-परम्परा ,रीति-रिवाज़

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...