ग़ज़ल--
खेल क़िस्मत के तो दिन रात बदल देते हैं
आदमी बदले न हालात बदल देते हैं
जब भी करता हूँ मैं इज़हारे-मुहब्बत उनसे
मुस्कुरा कर वो सदा बात बदल देते हैं
सोचिये दिल पे गुज़रती है मेरे क्या उस दम
जिस घड़ी आप मुलाकात बदल देते हैं
आज के दौर में क़ासिद पे भरोसा ही नहीं
बीच रस्ते में जवाबात बदल देते हैं
मशविरा करना किसी से तो रहे ध्यान यही
लोग शातिर हैं ख़यालात बदल देते हैं
किस तरह कोई ग़ज़ल छेड़े मुहब्बत वाली
सारा माहौल फ़सादात बदल देते
अपनी नाकामी पे रोने से भला क्या *साग़र*
हर नतीजे को तज्रिबात बदल देते हैं
🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
25/6/2021
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