विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल--

इश्क़ की आबरू हम बढ़ाते रहे
अश्क पीते रहे मुस्कुराते रहे

एक मुद्दत हुई जिनसे बिछड़े हुए
हर नफ़स वो हमें याद आते रहे

यूँ तो वाबस्तगी हर क़दम पर रही 
जाने क्यों हौसले डगमगाते रहे 

इक ज़रा देर की रौशनी को फ़कत
अहले-दानिश भी घर को जलाते रहे

इस कदर बढ़ गयी ख़्वाहिश-ए - मयकशी
मककदे में ही हर शब बिताते रहे

वो ग़ज़ल इस कदर ख़ूबसूरत लगी
रात भर ही उसे गुनगुनाते रहे

दौरे- *साग़र* चला मयकदे में मगर
जश्ने-तशनालबी हम मनाते रहे

🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली

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