मोहब्बत ! ( नज़्म )
बादलों को मोहब्बत है धरा से,
और धरा को मोहब्बत है बादल से।
दोनों को मोहब्बत है इस जहां से,
औ जहां को मोहब्बत है हरेक कण से।
मोहब्बत के बूते चल रही ये दुनिया,
प्रेम के धागे से बँधी है ये दुनिया।
बिना बादल के संसार रहेगा कैसे,
मोहब्बत बिना यह संसार चलेगा कैसे।
समर्पण है देखो! दोनों के अंदर,
इश्क भी तो है दोनों के अंदर।
जहां में जिस्म किसका टिका है,
जवानी का ज्वार कहाँ रुका है।
धरा के गर्भ से नवांकुर है फुटता,
फूल -फल से ही जग महकता।
छूता जब कोई रोम-रोम सिहरता,
अंग -अंग न वो बस में तब रहता।
मोहब्बत अगर परवान न चढ़ती,
इतनी हसीन ये दुनिया न रहती।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
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