मिसिर की कुण्डलिया
मानव बनने की ललक, जिसमें है भरपूर।
वह दुष्कृत्यों से सदा ,रहता है अति दूर।।
रहता है अति दूर, सदा अपना मुँह फेरत।
सत्कर्मों के संग,स्वयं की नैया खेवत।।
कहें मिसिर कविराय, घृणा से देखत दानव।
चाहत केवल एक, बने वह सुंदर मानव।।
नोचो उसके पंख को, जो करता व्यभिचार।।
कदाचार के शब्द को,कहता शिष्टाचार।।
कहता शिष्टाचार,बुद्धि का वह मारा है।
अतिशय भोगी दृष्टि,पतित कामी न्यारा है।।
कहें मिसिर कविराय, जरा नीचों पर सोचो।
तोड़ो उसके दाँत,बाल -पंखे सब नोचो।।
रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801
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