कविता (उर्दू)
अपने करमों से सवाँरा है हमने जोभी इस जनम में
हासिल कहीं और जा होगा रहना नहीं इस भरम में
यहाँ का कर्ज यहीं मुकम्मल सबको चुकता करना हीं पड़ेगा
दोज़ख यहीं विहिस्त भी यहीं जनाजे के बाद कुछ न होगा
दोज़ख है महज़ एक खौफ़- मुल्लाओं खातिर रकम है
जन्नत है महज़ इक भुलावा बेबुनियाद बात यह भ्रम है
इज़ाद ये कुछ सिरफिरों की महजबी गफलत है
कोई कहीं गया कहाँ ? कि वापस लौट आता है
न कोई किसी आसमान कभी बसने जाएगा
नगद भुगतान यहीं सारा इंसान पा जाएगा
मज़हबी फलसफ़ा जिंदगी करता बरबाद है
कमाने का गलत जरिया है गुनाह, हराम है
पिण्ड दान पण्डों का घर सदा सजाता है
पितृ यज्ञ है धर्म- रोज दोहराया जाता है
जिन्दे माँ बाप के आँसुओं को तो जरा पोंछ लो
कर्ज दूध का है बहुत तुम पहले यह भी सोचलो
जज्बात नहीं हकिकत की फ़िक करो
सामने है उसका हीं पहले जिक्र करो
नेकी की राह पे चलना हीं ज़िन्दगी है
बदी की राह बेमौत कफ़न बेमानी है
यही है मज़हबी तालीम यही नेह की पाक डगर है
ज़ालीम इन्सान, हैवान से भी हुआ आज बदतर है
नेक इन्सान, फरिस्ते से भी बढ़ कर अदब के हकदार है
बुराई में मशगूल जो- हर सजा करती उनका इंतजार है
डॉ. कवि कुमार निर्मल
बेतिया, पश्चिम चंपारण, बिहार
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