उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ...
लोभ मोह से भरी ये दुनिया
अपने पंखन की आस।
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ...
अपनापन दिखावा है सब, मिथ्या सबकी बात
उस चेहरे के पीछे छिपा, जाने कौन नकाब
मन चंचल, पथ भटक गया है, कैसी अंधियारी ये रात
बस कुछ पहर का खेल है पगले, फिर क्या शह और मात
डूब रही है नैया अपनी, अब कैसी ये ठाट
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ
लोभ मोह से भरी ये दुनिया, अपने पंखन की आस
उड़ चल रे पंछी कोई न दीजे साथ
दुसरो से क्या शिकवा करें जब अपने लगाएं घात
दुख की दुपहरी बीत रही, अब होने को है सूर्यास्त
जीवन के इस भागदौड़ में, कौन सुने जज़्बात
नज़र बंदी का खेल है जग ये, कोई नही करामात
'प्रभु भक्ति' की डोर में ही, बंधी है अपनी सांस
लोभ मोह में डूबी ये दुनिया, अपने पंखन की आस
उड़ चल रे पंछी, कोई न दीजे साथ।
- ई० शिवम कुमार त्रिपाठी
Email: tripathishivam5@gmail.com
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