नहीं बात ऐसी कि पहरा नहीं है
किसी के वो रोके से रुकता नहीं है
तड़प है मुहब्बत की उसके भी दिल में
जो तोड़ा कभी उसने वादा नहीं है
बयां क्या करूँ ख़ूबसूरत है कितना
यहाँ उसके जैसा भी दूजा नहीं है
मुहब्बत है उससे ये कैसे मैं कह दूँ
वो इतना भी खुलकर के मिलता नहीं है
तेरे ग़म से फ़ुर्सत ही मिलती कहाँ है
किसी सिम्त यूँ हमने देखा नहीं है
वो चाहें तो पत्थर लगें तैरने भी
अभी वाक्या हमने भूला नहीं है
उसी के करम पर भरोसा है हमको
सिवा उसके कोई हमारा नहीं है
कभी क़द्रां होंगे लाखों हमारे
ज़माना अभी हमको समझा नहीं है
असर शेरगोई में कैसे हो *साग़र*
लहू तो ग़ज़ल में निचोड़ा नहीं है
🖋️विनय साग़र जायसवाल,बरेली
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