साधना मिश्रा विंध्य

विषय  *पिताजी*

पिता हमारे जब से छूटे
बस मायका ही छूट गया।
होली दिवाली दूज राखी
 सब कुछ पीछे छूट गया।

बुढ़ापे की लाचारी में,
 चली चला की बेला है
बोल पिता ने संग छोड़ा 
मानो ईश्वर ने मुंह मोड़ा।

तड़प तड़प कर गुजरे वो दिन
जिम्मेदारियों ने घेरा था।
लाख चाहने पर भी मायके 
की दहलीज़ से नाता तोड़ा था।

नेह भरे दो हाथों को जब 
सिर पर रख देते थे।
जन्मों की सारी पीड़ा
बस पल भर में हर लेते थे।

गुरु मित्र बावर्ची बनकर
खुशियां बांटा करते थे।
खेल खेल में जीवन पथ का 
धर्म सिखाया करते थे।

सदा खुश रहो प्यारी बिटिया 
कहकर कटता फोन था।
ईश्वर तुल्य पिता छूट गए 
सारा जग अब मौन था।


साधना मिश्रा विंध्य
 लखनऊ उत्तर प्रदेश

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