चंचल हरेंद्र वशिष्ट

'प्रेम की प्रतिमूर्ति'

धन दौलत और रुतबे
की नहीं दरकार मुझको।

बस अपनों से केवल
है सच्चा प्यार मुझको।

सहन करने की भी होती है
एक सीमा न,ध्यान रहे!

यूँ ही तुम्हारी हर बात
नहीं स्वीकार मुझको।

मेरे प्यार का रखना 
तुम मान हमेशा ही,

सम्मान सदा करूँगी
मिले हैं संस्कार मुझको।

एक इंसान हूँ प्रयोग की
कोई वस्तु नहीं हूँ मैं 

कि इस्तेमाल करके तुम
समझो बेकार मुझको।

करना आता है मुझे प्रेम
और प्रेम का प्रतिकार भी

नहीं ये कहने में झिझक 
और ज़रा इन्कार मुझको।

'चंचल' कह रही है जो
हल्के में यूँ लेना न तुम

न कहना कि कहा नही
पहले एक बार मुझको।

स्वरचित,मौलिक एवं अप्रकाशित रचना:
चंचल हरेंद्र वशिष्ट,नई दिल्ली

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