कुदरत की चिट्ठी
हे ! इंसान हे महामानव !!
तुम्हें एक बात कहनी थी ।
मैं कुदरत ,लिख रही हूँ ,
आज एक खत तुम्हारे नाम ।
मैं ठहरी तुम्हारी मां जैसी ,
जो अप्रतिम प्यार लुटाती ।
बिल्कुल निस्वार्थ, निश्छल ,
जो बदले तुमसे कुछ न चाहती।
परंतु आज मैं लिख रही हूँ ,
तुमको एक दर्द भरी दास्तान ,
यही है मेरी अंतिम चिट्ठी ।
सुनो मानव !!इक बात सुनो ,
एक दुनिया तुम्हारी भी है ,
तो एक दुनिया मेरी भी ।
मैं अपनी दुनिया तुम पर लुटाती,
लेकिन बदले में तुमसे ,
केवल अत्याचार ही पाती ,
तिरस्कार ही पाती ।
फिर भी मैं यही चाहती !!
कि मैं जब जब मरूँ,
तब तब पुनः देह धारण करूँ ।
तुम्हारे लिए फिर बन सकूँ ,
नदी ,धरा ,पेड़ पौधे ,पत्थर ।
मोक्ष की कामना भी नहीं मुझे।
न मुक्ति की कोई चाह ।
हे ! मानव सुन ले इक बात ,
कुछ पल के लिए मेरे प्यार को ,
मेरे लाड़ दुलार को सोच ।
फिर चला मुझ पर कुल्हाड़ी,
मिटाता चल मेरा वजूद ।
दिन-ब-दिन कत्ल कर मेरे अस्तित्व का ।
तहस-नहस कर मुझ प्रकृति को,
लेकिन देख ले भयावह अंजाम ।
आये दिन महामारियां ,भूकम्प ,
कहर , जल प्रलय ,मानव विनाश।
अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा,
संभल जा जरा ,सुधर जा ,
दया कर मुझ पर ,मत सता ।
मुझ बेजुबान की खामोशी सुन।
हे ! मानव हे !इंसान हे!बुद्धिमान ।
तुम्हारी कुदरत
सुषमा दीक्षित शुक्ला
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें