सुषमा दीक्षित शुक्ला

कुदरत की चिट्ठी 

हे ! इंसान हे महामानव !!
तुम्हें एक बात कहनी थी ।
मैं कुदरत ,लिख रही हूँ ,
आज एक  खत तुम्हारे नाम ।
मैं ठहरी तुम्हारी मां जैसी ,
जो अप्रतिम प्यार लुटाती ।
 बिल्कुल निस्वार्थ, निश्छल ,
जो बदले तुमसे कुछ न चाहती। 
 परंतु आज मैं लिख रही हूँ ,
तुमको एक दर्द भरी दास्तान ,
यही  है मेरी  अंतिम चिट्ठी ।
सुनो मानव !!इक बात सुनो ,
एक दुनिया तुम्हारी भी है ,
तो एक दुनिया मेरी भी ।
मैं अपनी दुनिया तुम पर लुटाती,
 लेकिन बदले में तुमसे ,
केवल अत्याचार  ही पाती ,
तिरस्कार ही पाती ।
 फिर भी मैं यही चाहती !!
कि मैं जब जब मरूँ, 
तब तब पुनः देह धारण करूँ ।
 तुम्हारे लिए फिर बन सकूँ ,
नदी ,धरा ,पेड़ पौधे ,पत्थर ।
मोक्ष की कामना भी नहीं मुझे। 
न मुक्ति की कोई चाह ।
 हे ! मानव  सुन ले इक बात ,
कुछ पल के लिए मेरे  प्यार को ,
मेरे लाड़ दुलार को सोच ।
 फिर चला मुझ पर कुल्हाड़ी,
 मिटाता चल मेरा वजूद ।
दिन-ब-दिन कत्ल कर मेरे अस्तित्व का ।
तहस-नहस कर मुझ प्रकृति को,
 लेकिन देख ले भयावह अंजाम ।
आये दिन महामारियां ,भूकम्प ,
कहर , जल प्रलय ,मानव विनाश।
अभी भी ज्यादा कुछ नहीं बिगड़ा,
 संभल जा जरा ,सुधर जा ,
दया कर  मुझ  पर ,मत सता ।
मुझ बेजुबान की खामोशी सुन। 
हे ! मानव हे !इंसान हे!बुद्धिमान ।

     तुम्हारी कुदरत
सुषमा दीक्षित शुक्ला

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