डॉ० रामबली मिश्र

माँ प्रदत्त हिंदी अति प्यारी
                 (चौपाई)

हिंदी अत्युत्तम भाषा है।
जननी की यह अभिलाषा है।।
बहुत लोचपूर्ण मर्यादित।
सकल विश्व पर यह आच्छादित।।

बहुत मधुर यह रम्य सुरीली।
कान्हा की यह प्रीति छवीली।।
सीता माता का उर-आँगन।
परम विनीत पुनीत सुहावन।।

रामचन्द्र की यह बोली है।
मधु भाषाओं की टोली है।।
अमृत वचन छिपे इसमें हैं।
महनीयों के हृदय रमे हैं।।

देवलोक की यह भाषा है।
जननी की प्रिय परिभाषा है।।
भाग्यवती सम्मोहक शीला।
सभी रसों से पूर्ण सुशीला।।

छंदवद्ध निर्बन्ध रसायन।
सदा अलंकृत  शिव रूपायन।।
हिंदी नाम सुलोचन शुभदा।
सहज भावमय स्नेह संपदा।।

वीर-करुण रस की अभिलाषी।
शांत रसिक पावन आकाशी।।
जय हो जय हो जय हो हिंदी।
सकल विश्व-मस्तक की बिंदी।।

अमर अनंत शिरोमणि श्रीधर।
हिंदी सहज काव्य मधु कविवर।।
हिंदी मेँ कर जीवन यापन।
हिंदी से पाओ उच्चासन।।

हिंदी करती शंखनाद है।
हिंदी में ही हंसनाद है।।
हिंदी भाषा सिंहनाद है।
इस भाषा में विश्वनाद है।।

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नमो नमो हे माँ सरस्वती
              (चौपाई)

सरस्वती माँ प्रिय नमनीया ।
अति मृदु भाषी शुभ महनीया।।
मधुर भावमय महादेवमय।
ज्ञान महान सुजान सत्यमय।।

सात्विक तेजपुंज विद्याधर ।
सदा सुहागिनि मधु शोभाघर।।
ज्ञानवती युवती प्रिय नारी।
ब्रह्माण्डीय व्यवस्था प्यारी।।

विदुषी परम अनंत ज्ञानश्री।
दिव्य विलक्षण प्रेम मातृश्री।।
सर्व व्यापिनी  महा व्योममय।
अति कल्याणी योगक्षेममय ।।

माताश्री को नमस्कार कर।
मातृ शक्ति से सहज प्यार कर।।
हंसवाहिनी सत्य विवेकी।
करती सब भक्तों पर नेकी।।

माँ श्री को उर में धारण कर।
जपो नाम को उच्चारण कर।।
विनयशीलता का वर माँगो।
पठनशीलता में नित जागो।।

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 बहो प्रेम तुम सज्जन बनकर
                 (चौपाई)

दिखो अनवरत पावन रुचिकर।
बहो प्रेम तुम सुंदर बनकर।।
बैठ हृदय में नीति बनाओ।
सब के मन में प्रीति जगाओ।।

सब का मन शीतल करते रह।
स्नेहसलिल बनकर तुम नित बह।।
करो तपस्या बनो तपस्वी।
रक्षारत हो बनो यशवी।।

करो हृदय पर राज सर्वदा।
बनो विश्व की सकल संपदा।।
मन को मंदिर सहज बनाना।
उस में खुद स्थापित हो जाना।।

चढ़ कर बोलो सकल लोक पर।
थिरको शिव के दिव्य श्लोक पर।।
छू दो जिस को प्रेम बने वह।
पारस पावन पवन सरिस बह।।

रोमांचित कर दो जगती को।
सींच नीर बन कुल धरती को।।
बहो बहाओ सारे जग को।
प्रेम! धरा पर रख अपना पग।।

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 धर्म मनुज का नाम हो
                 (दोहे)

धर्म स्वयं ही मनुज बन, करे विश्व में काम।
दिखलाये शिव पंथ को, दे सब को विश्राम।।

धर्म ध्वजा फहरे सतत, हो सब का कल्याण।।
धर्म वायु में नित बसे, हर मानव का प्राण।।

धर्म पंथ केवल दिखे, चलें पथिक कर जोड़।
रहे हृदय में धर्म बस, लगे राह बेजोड़।।

धर्म पाठ होता रहे,सब में हो मृदु भाव।
धर्म युधिष्ठिर बन चले,डाले सत्य प्रभाव।।

धर्म वायु बनकर बहे, महके धर्म -सुगंध।
धर्म पवन की दमक से, मिटे सकल दुर्गन्ध।।

सदा आत्म की नींव पर, खड़ा रहे इंसान ।
काया साधन सिर्फ है, साध्य इसे मत जान।।

सकल विश्व में धर्म का, केवल करो प्रचार।
  पावन स्वच्छ विचार से, रच स्वर्गिक संसार।।

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 सुंदर संबोधन बन जाओ
                 (सजल)

भाव समंदर घन बन जाओ।
सुंदर संबोधन बन जाओ।।

सदा मित्र को ईश्वर जानो।
प्रेम गंग में नित्य नहाओ।।

सब को बड़ा समझ कर चलना।
मन को सहज मनाते जाओ।।

अच्छे उपदेशों को सुनना।
गुनते चल कर शीश नवाओ।।

पहचानो अग्रज की भाषा।
हृदयंगम कर बढ़ते जाओ।।

माया-मोहमुक्त बन जीना।
धर्म बीज मन में उपजाओ।।

धर्म युद्ध के लिये सजग रह।
अति मोहक अर्जुन बन जाओ।।

विजय पताका लिये हाथ में।
पाण्डव संस्कृति को अपनाओ।।

कभी उलझनों में मत फँसना।
हर उलझन को नित सुलझाओ।।

दीक्षित हो कर सदा कृष्ण से।
प्रभु का संबोधन बन जाओ।।

बनो यशस्वी इस धरती पर।
शुभभागी बन कर दिख जाओ।।

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 खुला प्रेम-पत्र   (चौपाई)

यह साधारण पत्र नहीं है।
दिव्य लोक का वस्त्र यही है।।
परम ब्रह्म का यह प्रसाद है।
इस का मीठा मधुर स्वाद है।।

घूम रहा सर्वत्र यही है।
अति प्रिय पावन अस्त्र यही है।।
प्रेम ध्वजा बन  यह लहराता ।
सब को अपने पास बुलाता।।

सकल लोक का यह सुवास है।
गमक रहा यह सहज वास है।।
निर्विकार साकार आत्ममय।
विष-विकार से मुक्त अमीमय।।

इस को ले कर गले लगाओ।
अपना भाग्य स्वयं अजमाओ।।
इसको मत सामान्य समझना।
अपने दिल में लिये थिरकना।।

खुला मंच यह प्रेम पत्र है।
मानव प्रेमी महा शस्त्र है।।
है मज़बून बहुत अलबेला।
अति मनमोहक भाव सहेला।।

सखा मित्र प्रेमी सा जानो।
इस को अपना सब कुछ मानो।।
आत्मशक्ति से बना हुआ है।
प्रेमशक्ति में सना हुआ है।।

यही पीरपैगंबर  सा है।
प्रीति रीति के अंबर सा है।।
घूम रहा है दिग्दिगन्त तक।
सभी चराचर साधु-सन्त तक।।

पढ़कर इसको जो समझेगा।
सकल लोक का मित्र बनेगा।।
प्रेम -पत्र मानव को रचता।
मानवता में सहज विचरता।।

रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
9838453801

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