संजीदगी
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अब तो संजीदा हो जाइए
उच्चश्रृंखलता छोड़िए,
समय की नजाकत महसूस कीजिए माहौल अनुकूल नहीं है
जान लीजिए।
लापरवाही और गैरजिम्मेदारी
भारी पड़ती जा रही है,
आपको शायद अहसास नहीं है
कितनों को खून के आँसू रुला रही है।
धन, दौलत, रुतबा भी
कहाँ काम आ रहा है,
चार काँधे भी कितनों को
नसीब नहीं हो रहे हैं,
अपने ही अपनों को आखिरी बार
देखने को भी तरस जा रहे हैं,
सब कुछ होते हुए भी
लावारिसों सा अंजाम सह रहे हैं।
अपनी ही आदतों से हम
कहाँ बाज आ रहे हैं,
खुल्लमखुल्ला दुर्गतियों को
आमंत्रण दे रहे हैं।
कम से कम अब तो
संजीदगी दिखाइये,
अपने लिए नहीं तो
अपने बच्चों के लिए ही सही
अपनी आँखें खोल लीजिए।
आज समय की यही जरूरत है
संजीदगी को अपनी आदत में
शामिल तो करिए ही,
औरों को भी संजीदगी का
पाठ पढ़ाना शुरु कर दीजिए।
◆ सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
8115285921
©मौलिक, स्वरचित
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