मन की गाँठ
योग गुरुओं का मेला है
योगी यह हुआ अकेला है
मंत्राधात् का अनवरत् रेला है
चक्र साधना बड़ा झमेला है
मयपन से छुटकारा कठीन,
योगमाया का यह सबेरा है
लिखता चिट्ठी प्रभुवर को
भवसागर तारणहार को
तेरा हीं करा धरा यह सब
आशा है तब गहा नेह को
घर में रहना पर प्यार कहाँ!
होटल सा लगता संसार यहाँ!
मोबाइल से चिपक सभी बैठे,
अपनों में है व्यापार कहाँ?
मन की गाँठ सुलझाना कठिन
पढ़ता कुछ और हो पाता प्रवीण
नूतन पृथ्वी बनाने की बात सही,
खोज रहे सब मिल कर यहाँ जमीन
डॉ. कवि कुमार निर्मल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें