वो थी मासुम गुड़िया चली गाँव को,
नन्हीं सी जान वो रख रही पाँव को,
चिलचिलाती भरी दोपहर रेत की,
वो क्या समझे भला मौत के दाँव को।।
चलते चलते अचानक ठिठक सी गयी,
कहते कहते जुबाँ लटपटा सी गयी,
माँगती नीर औ लड़खड़ाने लगी,
छटपटाती हुई भूमि पर गिर गयी।।
मौत के आगोश में भूमि पर सो गई,
प्यासी पानी की वो दास्ताँ कह गई,
खोल दी पोल उसने प्रबंधन की जो,
भामाशाहों की धरती पर वो मर गई।।
वो क्या समझें जो एसी में जीवन जिए,
राजनीति ही जो लाश पर है किए,
भूखे लाचार से उनको क्या वासता,
जो बुझाते हमेशा घरों के दिए।।
कैसे कह दूँ कि शासन सुशासन तेरा,
जल प्रबन्धन पे दिखता कुशासन तेरा,
है छलावा दिखावा बहुत वादों में,
कैसे कह दूँ प्रगतिशील शासन तेरा।।
सात किलोमीटर का सफर तय किया,
हौसले संग कदमों को चलने दिया,
राह में ना कोई स्रोत जल का मिला,
बेखबर राज का किस्सा भी कह दिया।।
✍️कुमार@विशु
✍️स्वरचित मौलिक रचना
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