नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

        ---------मौन------

जुबान ,जिह्वा और आवाज़ जिसके संयम संतुलन खोने से मानव स्वयं खतरे को आमंत्रित करता है और ईश्वरीय चेतना की सत्ता को नकारने लगता है।अतः जिह्वा जुबान का सदैव
संयमित संतुलित उपयोग ही नैतिकता नैतिक मूल्यों को स्थापित करता है जिह्वा जुबान का असंयमित असंतुलित प्रयोग घातक और जोखिमो को आमंत्रण देता है ।प्रस्तुत लघुकथा इसी ईश्वरीय सिद्धान्त पर आधारित आत्मिक ईश्वरीय तत्व  का बोध कराती समाज को एक सार्थक संदेश देती है-- जमुनियां गांव में बहुत बढ़े जमींदार मार्तंड सिंह हुआ करते थे आठ दस कोस में उनसे बड़ा जमींदार कोई नही था उनके परिवार की सेवा में पूरे गांव के लोग चाकरी करते थे चाहे खुद जमींदार मार्तण्ड सिंह की ही बिरादरी के लोग क्यो न हो ।मार्तण्ड सिंह के गांव के ही उनके पट्टीदार थे अनंत सिंह जो बहुत साधारण हैसियत के व्यक्ति थे किसी प्रकार उनका खर्चा चलता जब उन पर जमींदार मार्तण्ड  सिंह की कृपा होती ।अनंत सिंह  का बेटा मार्तण्ड सिंह का घरेलू कार्य करता जैसे मालिक को नहलाना
उनकी मालिश करना पैर दबाना आदि
मार्तण्ड सिंह के दो बेटे और एक बेटी थी जिनका नाम शमसेर सिंह दुर्जन सिंह और बेटी का नाम प्रत्युषा था तीनो अंग्रेजी कान्वेंट स्कूल में क्लास थर्ड फोर्थ फिफ्थ में पढ़ते थे अनंत सिंह के बेटे  निरंकार सिंह को भी पढ़ने का बहुत शौख था मगर एक तो अनंत सिंह की हैसियत नही थी दूसरे मार्तण्ड सिंह का खौफ वे हमेशा कहते खाने का ठिकाना नही बेटे को हाकिम
कलक्टर बनाने का सपना देखोगे तो  दो रोटी पूरे परिवार को मेरी चाकरी से मिलता है उसे भी बंद करा दूंगा।अनंत सिंह एवं उनका परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी मार्तण्ड सिंह की गुलामी ईश्वर का न्याय और भाग्य मानकर मन मसोस करते जाते।मगर उनका बेटा निरंकार मन ही मन ईश्वर की शक्ति अपनी आत्मा से प्रतिज्ञ था कि वह पिता की विवसता की दासता तोड़ेगा वह मार्तण्ड सिंह की चाकरी करता और बेवजह चाबुक लात बेत की मार ठकुराई जमीदारी के शान की खाता रहता इन सबके बीच वह  समय निकाल कर मार्तण्ड सिंह के बेटे बेटियों की किताब माँगकर पढ़ता
मार्तण्ड सिंह के बेटो बेटी को पढ़ने में
कोई रुचि नही रहती सिर्फ बाप के भय से पढ़ने की औपचारिकता करते 
इधर निरंकार मार्तण्ड सिंह की चाकरी  में प्रतिदिन चाबुक डंडे लात घूंसों की
मार सहता कभी नाक फूटती कभी
हाथ पैर में घाव के दर्द से परेशान हो
जाता फिर भी वह अपने पिता अनन्त सिंह से कुछ नही बताता ना ही इतने जुल्म पर मार्तण्ड सिंह से ही कुछ कहता सिर्फ मौन रह सबकुछ बर्दास्त करता अपने उद्देश्य पथ शिक्षा हेतु सारे प्रयास करता एक दिन ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने निरंकार को पढ़ते देख लिया और कुछ सवाल किया उनको लगा कि निरंकार उनके बेटे बेटियों से ज्यादा तेज और कुशाग्र है सो उन्होंने क्रोध से उसे सलाखों से दाग दिया छटपटात तड़फड़ाता निरंकार कुछ नही बोला और फिर नित्य की भाँती अपनी कार्य मे लग गया।समय बीतता गया निरंजन ने चोरी चोरी हाई स्कूल प्राईवेट पास प्रथम श्रेणि में पास किया जिसकी जानकारी मार्तण्ड सिंह जी को नही थी।उनके दोनों बेटों एव बेटी ने भी किसी तरह हाई स्कूल पास कर लिया अब ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने माध्यमिक और उच्च शिक्षा के लिये अपने बच्चों को शहर के स्कूल भेजा और निरंकार को साथ बच्चों का भोजन बनाने और सेवा के लिये साथ भेजा आब क्या था निरंकार को ईश्वर ने अवसर दे दिया वह खुशी खुशी शमशेर दुर्जन प्रत्यूषा के साथ साथ लखनऊ चला गया और वहां इनका खाना बनाता बर्तन माजता कपड़े साफ करता और समय निकाल कर उन्ही की किताबो से चोरी छिपे पड़ता रहता धीरे धीरे मार्तण्ड सिंह के बच्चों ने इंटर मीडिएट स्नातक की परीक्षा पास की  निरंजन ने स्नातक व्यक्तिगत छात्र के रूप में विश्विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया जब समाचार पत्रों में खबर छपी तब शमशेर दुर्जन ने उसकी इतनी धुनाई की वह लगभग मरणासन्न हो गया उसे मरा जानकर शमसेर एव दुर्जन ने पास की झाड़ी में फेंक दिया।सुबह फजिर की नवाज़ से पहले मिया नासिर उधर से गुजर रहे थे कि किसी इंसान के कराहने की आवाज़ सुनाई दी फौरन जाकर देखा तो एक इंसान जो मरणासन्न था मगर सांसे चल रही थी मिया साहब उसे उठाकर अपने घर ले गए और उसका देशी इलाज शुरू किया होश आने पर जब उसका नाम नासिर ने पूछा तो उसने सारी घटना  आप बीती बताकर अपना असली नाम छुपाने की बिना पर नासिर को अपना  असली नाम बताते हुये उसे छुपाने का आग्रह किया और नकली नाम रहमान से परिचय करवाया नासिर को कोई आपत्ति नही थी । नासिर जूते चप्पलों की मरम्मत का काम करता था नासिर के ही कार्य को रहमान उर्फ निरंकार ने शुरू किया।एक दिन फुटपाथ पर बैठा रहमान जूतो चप्पलों की मरम्मत का कार्य कर रहा था कि उधर से गुजरते शमशेर और दुर्जन की नज़र उस पर पड़ी दोने जाकर अपने जूते पालिश करवाये और उसके उपरांत उसे अपने बूटों से इतनी तेज मारा की निरंकार सड़क के एक किनारे जा गिरा उसके नाक हाथ मे घाव हो गए और खून गिरने लगा फिर भी वह कुछ नही बोला देखने वाले लोगो को दया और शर्मिदगी महसूस हुई मगर वे भी कुछ बोल नही सके। इसी तरह समय बीतता गया निरंकार ने स्नातकोत्तर में विश्विद्यालय में प्रथम स्थान प्राप्त किया ।अब उसका मकशद जीवन भर की जलालत जुर्म की जिंदगी को स्वयं परिवार को आज़ाद कराना उसने दिन रात कड़ी मेहनत की और भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुआ उसके चयन की खबर उसके गांव उसके पिता और मार्तण्ड सिंह को हो चुकी थी ।चयन होने के बाद निरंकार नासिर के साथ अपने गांव गया और सबसे पहले अपने पिता का आशिर्वाद प्राप्त किया उसके पिता अनंत देव अपना आशीर्वाद देने के बाद अपने बेटे को ठाकुर मार्तण्ड सिंह के पास ले गए ठाकुर मार्तण्ड सिंह ने पिता
अनंत देव सिंह से कहा तुम्हारे बेटे ने  हमारे परिवार के क्रूरता अन्याय अत्याचार को अपने संयम संतुलन आचरण से बर्दाश्त किया  कभी कुछ नही बोला मौन रहा ठीक
उसी प्रकार जैसे कोई पत्थर की मूर्ति
संवेदन हीन जिसे दर्द पीड़ा का एहसास नही था यह निरंकार की निरंकुशता के खिलाफ सहनशक्ति थी और उसके चैतन्य सत्ता आत्मा में जीवन मूल्य उद्देध्य की जागृति का जांगरण का परिणाम हैं जिसने उसे सफल किया जैसे कि मरे हुये जानवर की खाल की सांस से लोहा भस्म हो जाता है ठीक उसी प्रकार निरंकार के मौन ने हमारी निरंकुशता की जमीदारी को भस्म करने की प्रतिज्ञा पूर्ण की है तुम भाग्यशाली हो ठाकुर अनंत सिंह और हम अन्याय क्रुरता में रक्त सम्बन्धो को भूलने वाले
अब शनै शैन अपने समाप्त होने की दर्द पीड़ा में जलते जाएंगे।।

नन्दलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश


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-------संस्कार की शिक्षा----------

एक गाँव मे एक गरीब ब्राह्मण रहते थे    उस गरीब ब्राह्मण के पास अपनी छोपडी के अलावा खेती की कोई जमीन नही थी जिसके कारण पंडित जी अपने परिवार का भरण पोषण करने के लिये पांडित्य कर्म करते उससे भी परिवार का पेट नही भरता तो भिक्षाटन भी करते बड़ी मुश्किल से  परिवार का गुज़र बसर हो पाता कभी कभार भाका मस्ती के कारण पानी पी कर ही दिन रात गुजारनी पड़ती।पंडित  की चार पुत्र थे  जिनका पढने लिखने में मन नही लगता पंडित जी अपनी पूरी क्षमता से कोशिश करते कि उनके बेटे कम से कम इतना तो पढ़ ही ले कि कम से कम पांडित्य कर्म करके अपना और अपने परिवार का भरण पोषण कर सकने में सक्षम हो सके मग़र उनके चारों पुत्रो पर कोई प्रभाव नही पड़ा धीरे धीरे समय बीतता गया और पंडित जी के चारों बेटे जवान हो गए मगर शिक्षा के नाम पर मात्र संस्कृत के कुछ अक्षर शब्द ज्ञान तक ही सीमित थे।अब पंडित जी के ऊपर जवान चार बेटो के भरण पोषण का भी भार था पंडित जी को देखकर अक्सर लोग कहते थे पंडित जी की क्या किस्मत है जिसके चार चार जवान बेटे नाकारा हो क्या कहा जाय भगवान के न्याय को पंडित जी कोल्हू के बैल जैसे दिनरात खटते और पत्नी के साथ साथ चार जवान बेटों का पेट भरते पंडित जी बूढ़े भी हो चुके
थे एक दिन पंडित जी ने अपने चारों बेटों सुरेश ,रमेश, दिवेश ,शिवेश को बुलाया और वात्सल्य से भाव विभोर होते हुए कहा मेरे प्यारे सुपुत्रों मैन तुम लोगो पर कभी कोई दबाव पिता होने के नाते नही बनाया तुम लोंगो की जब जो इच्छा हुई करते रहे मैने सदैब तुम लोंगो की प्रसन्नता में खुद की भलाई और खुशी का अनुभव किया अब मैं बूढ़ा हो चुका हूँ पता नही कब ईश्वर के यहाँ से बुलावा आ जाय मैं चाहता हूँ कि तुम लोग अपने पैरों पर खड़े होने का प्रयास करो इतना कहने के बाद पंडित जी की आंखों से आंसू आ गए पंडित जी के चारो बेटो ने जब पिता शुखराम की स्वयं के कारण यह दशा देखी चारो ने एक स्वर में कहा पिता जी अब हम लोग आपको अपनी शक्ल तभी दिखाएंगे जब कुछ समाज मे आपके लिये कर सकने में सक्षम होंगे इतना कह कर चारो भाई उठे और एक साथ आपस मे मंत्रणा करने लगे कि वे ऐसा क्या करे कि उनके बुढे पिता को आत्म सन्तोष मिले चारो ने कहा कि चुकी हम लोंगो ने अपने पिता को जबान दे रखा है कि
हम लोग अपनी शक्ल तभी दिखाएंगे जब समाज मे किसी सम्मान जनक स्तर पर पहुँच जाएंगे चारो भाईयो ने किसी तरह रात काटी और ब्रह्म मुहूर्त की बेला में साथ उठे और स्नान आदि नित्य क्रिया से निबृत्त होकर बिना किसी को बताए घर छोड़ बाहर निकल पड़े चारो भाई एक साथ पैदल चलते चलते थक चुके थे एक जामुन के बृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे तभी जामुन के बृक्ष से जामुन का एक फल नीचे गिरा बड़ा भाई सुरेश बोला (जामुनी अन्त न पाईओ) थोड़ी देर विश्राम करने के उपरांत चारो भाई फिर भूखे प्यासे चल पड़े कुछ दूर चलने के बाद फिर चारो भाई एक पीपल के बृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम करने लगे उसी समय दो व्यक्ति आपस  मे लड़ते झगड़ते चले जा रहे थे जिनको देखकर दूसरे भाई रमेश के मुँह से बरबस निकल पड़ा (ता पर मंडे  रार) पंडित सुखराम की नीद खुली तब उन्होंने अपनी पत्नी सुचिता से पूछा कि हमारे चारों पुत्र कहां चले गए सुचिता ने कहा कि आपसे कल चारो ने कहा था कि वे जब तक समाज मे सम्मानित स्तर पर नही पहुंच जाते तब तक अपनी शक्ल नही दिखाएंगे पता नही कब चारो कहाँ चले गए और फुट फुट कर रोने लगी पंडित सुख राम ने सुचिता को ढाढ़स बधाया और। बोले हमने पूरे जीवन मे किसी का कभी कुछ नही बिगाड़ा विश्वास रखो मेरी संतानों का भी अनभल भगवान नही करेगा किसी तरह से सुचिता ने अपने कलेजे पर पत्थर रख दिन रात अपने बेटों के इंतज़ार करने लगी।ईधर दो दिन से भूखे प्यासे चारो भाई चलते थकते विश्राम करते फिर चलते ना कोई उद्देश्य था ना निश्चित रास्ता चारो विश्राम कर रहे थे कि दो व्यक्ति आपस मे प्रेम करते जा रहे थे तभी तीसरे भाई के मुख से निकला (प्रीत करंता द्वी जने)  फिर चारो भाई साथ चलना शुरू किया कुछ दूर पैदल चलने के बाद फिर चारो भाई एक बट बृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे तभी चारो ने देखा कि एक पुरुष एक स्त्री को जबरन हाथ पकड़ कर घसीटते ले जाने की कोशिश कर रहा है शिवेश के 
जुबान से निकला(ता हरि लाओ नारी)
अब चारो भाईयो ने तय किया कि हम चारो ने जो शब्द बोले है उन्हें इकठ्ठा करके देखते है कि क्या हमने कुछ सार्थक किया या नही चारो ने क्रमश अपने शब्द बोलना  प्रारम्भ किया (जामुनी अंत न पाईओ ,ता पर मंडे रारी ,प्रीति करंता द्वी जने ता हरि लायो
नारी।।)चारो भाईयो ने देखा कि उनके द्वारा बोले शब्दो से बहुत सुंदर श्लोक का निर्माण  हो गया जो किसी वेद पुराण या धर्म शास्त्र में नही मिलेगा चारो भाई बड़े उत्साह से भूख प्यास भूल  कर चल पड़े लगभग एक सप्ताह की भूखे प्यासे  यात्रा के बाद चारो ने अपने राज्य की सीमा पार कर ली अब वे अपने देश राज्य की सीमा से बहुत दूर निकल चुके थे दूसरे राजा के राज्य सिमा में ज्यो चारो भाईयो ने प्रवेश किया तभी देखा कि बहुत से लोग राज दरबार की ओर जा रहे थे तभी चारो भाईयो ने जिज्ञासाबस जानना चाहा कि इतनी भीड़ कहाँ किस उद्देश्य से जा रहे है लोगो ने बताया कि   काम्पिल्य के राजा विभ्राट ने विद्वानों की एक सभा बुलाई है और शास्त्रार्थ का आयोजन किया है जो भी शास्त्रार्थ में विजयी होगा उसे राज पंडित की उपाधि प्रदान कर कीमती हीरे मोती जवाहरात के पुरस्कार से पुरस्कृत किया जाएगा ।चारो भाईयो ने निश्चय किया कि वे भी राजा विभ्राट की विद्वत शास्त्रार्थ में भागीदारी करेंगे चारो दस दिनों से भूखे पेड़ के पत्तो से झुधा मिटाते किसी तरह राजा विभ्राट की विद्वत सभा मे जा पहुंचे राजा चारो भाईयो को देख बड़ा प्रसन्न हुआ और बोला कि ये हमारे लिये गौरव की बात है कि हमारी विद्वत सभा के शात्रार्थ में दूर देश के विद्वत जन पधारे   चारो भाईयो का राज दरबार मे विधिवत सम्मान और स्वागत हुआ और राजकीय अतिथि के रूप में ठहराया गया ।दूसरे दिन शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ सभी विद्वान एक दूसरे को परास्त करते रहे अब अंत मे चारो भाई सुरेश, रमेश, दिवेश ,शिवेश की बारी आई चारो भाईयो ने कहा हम चारो भाई एक एक शब्द बोलेंगे जिससे एक श्लोक का निर्माण होगा उसका अर्थ इस विद्वत सभा को बताना होगा तब राजा विभ्राट ने आदेश दिया आप चारो भाई अपना शब्द बोले एक एक कर चारो भाईयो ने अपना शब्द बोलना शुरू किया -।।जामुनी अंत न पाईओ ता पर मंडे रार
प्रीत करंता द्वी जने ता हरि लायो नारी।।अब राजा विभ्राट ने विद्वत सभा को आदेश दिया कि चारो भाईयो द्वारा निर्मित श्लोक का अर्थ विद्वत सभा बताये।विद्वत सभा ने वैचारिक मंथन शुरू किया मगर कोई अर्थ नही समझ आ पा रहा था क्योंकि उक्त श्लोक किसी धर्म शास्त्र वेद पुराण से तो था नही जिसे किसी ने पढ़ा हो अतः एक माह का समय बीतने के बाद भी कोई विद्वान चारो भाईयो द्वारा निर्मित श्लोक का अर्थ नही बता पाया अंत मे काम्पिल्य नरेश विभ्राट ने चारों भाईयो को स्वय निर्मित श्लोक का अर्थ बताने का आदेश दिया तब बड़ा भाई सुरेश बोला जमुनी अंत न पाईओ अर्थात जिसका ऋषि मुनियों ने अंत नही पाया दूसरे भाई रमेश ने अपने शब्द ता पर मंडे रार का अर्थ बताया जिससे  जबरजस्ती दुश्मनी किया तीसरे भाई दिवेश ने अपना शब्द बोला प्रीति करंता द्वी जने अर्थात राम लक्ष्मण जैसे भातृत्व प्रेम करने वाले भाईयो चौथा भाई शिवेश बोला ता हरि लायो नारी अर्थात जिनकी भार्या को छल पूर्वक हरण कर लिया फिर राजा विभ्राट ने चारो भाईयो के शब्दार्थों की संयुक्त व्यख्या के लिये कहा तब सुरेश ने तीनों भाईयो का प्रतिनिधित्व करते बोला महाराज --जिसका ऋषि मुनियों ने अंत नही पाया जो राम लक्ष्मण जैसे भ्रातृत्व प्रेम के आदर्श है ऐसे दयालु कृपालु भगवान राम की पत्नी सीता माता का छल पूर्वक हरण कर दुष्ट रावण ने दुश्मनी मोल ली ।राजा विभ्राट बहुत प्रसन्न हुए और चारो भाईयो को विद्वत शिरोमणी के सम्मान  से पुरस्कृत कर ढेर सारे हीरे मोती आती कीमती रत्नों से सम्मानित किया   और राज्य का पंडित घोषित किया।
 धीरे धीरे चारो भाईयो की यश कीर्ति का पताका चहु ओर लहराने लगा एक राजा विभ्राट भी चारो भाईयो से बहुत प्रसन्न रहते थे एक दिन राजा ने चारों भाईयो से कहा हम आपके माता पिता से मिलना चाहते है आप अपने गांव का पता बताये हमारे सैनिक आपके माता पीता को संम्मान यहां ले आएंगे चारो भाईयो ने राजा का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया राजा को अपने गांव का पता बता दिया राजा  ने उन्हें आदर के साथ लाने हेतु अपने सैनिकों को आदेश दिया राजा का आदेश पाते ही सैनिक गए और चारो के माता पिता पंडित सुखराम और माँ सुचिता को साथ लेकर आये राजा विभ्राट ने स्वयम पंडित सुखराम और सुचिता को उनके चारो पुत्रो से मिलवाया पंडित सुखराम और माँ सुचिता गर्व से अभिभूत हो कर प्रसन्न हुए ।
अब पंडित सुखराम सुचिता अपने चारों बेटो के साथ राजा विभ्राट के राज्य में सम्मान के साथ रहने लगे एक दिन राजा विभ्राट और पंडित सुखराम सुचिता और उनके चारो बेटों को बुलवाया और पंडित सुखराम से प्रश्न किया कि आपने अपने चारों बेटो को क्या शिक्षा दी पंडित सुखराम ने कहा सत्य आचरण नैतिकता और वचन बद्धता की संस्कृति संस्कार की मैं बहुत गरीब ब्राह्मण था फिर भी मेरे जवान बेटो ने कभी भी अनैतिक आचरण पर चलना स्वीकार नही किया और जब इन्होंने मुझे वचन दिया कि ये तब तक अपनी शक्ल नही दिखाएंगे जब तक कि ये समाज मे सम्मान जनक स्तर पर नही पहुंच जाते इन्होंने अपने वचन का निर्वहन किया ये पंद्रह दिनों तक भूखे प्यासे रहे लेकिन किसी अनैतिक रास्ते पर  नही गए और इस भीषण चुनौती में भी इनमें कुछ करने की जिज्ञासा जागृत रही और अनेको कठिनाईयों में भी चारो भाईयो में परस्पर प्रेम में कोई कमी नही आई यहां तक कि आपके दरबार मे जिस श्लोक की चर्चा है उसे चारो भाईयो ने संयुक्त रूप से निर्माण किया ।महाराज यही शिक्षा मैन गरीबी में अपने चारों पुत्रो को दी है राज विभ्राट पंडित सुखराम की बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुए बोले यदि संसार के सभी माता पिता पंडित सुखराम और सुचिता जैसे हो जाय तो निश्चित ही संसार ही स्वर्ग बन जाय।।

नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर गोरखपुर उत्तर प्रदेश

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