ग़ज़ल---
2122-1122-1122-22
अपने जलवों से वो हर शाम सजाते रहते
उनके हम नाज़ यूँ हँस हँस के उठाते रहते
कितनी रौनक़ है मेरी रात की तन्हाई में
उनकी यादों के मुसाफ़िर यहाँ आते रहते
इसलिए नूर बरसता है मेरे कमरे में
रात भर ख़्वाब में जलवा वो दिखाते रहते
भूल जाते वो किसी रोज़ तकल्लुफ़ ख़ुद ही
गाहे गाहे ही सही हाथ मिलाते रहते
छू नहीं सकती कभी आँच ग़मों की तुझको
तू रहे ख़ुश ये दुआ रोज़ मनाते रहते
तीरगी ज़हनो-ख़िरद से है यूँ घबराई हुई
सब्र के दीप जो हम रोज़ जलाते रहते
फिर कोई आपसे शिकवा न शिकायत होती
जाम पर जाम निगाहों से पिलाते रहते
पास रक्खा न कभी उसने वफ़ा का *साग़र*
दौलत-ए-इश्क़ हमीं कैसे लुटाते रहते
🖋️विनय साग़र जायसवाल
13/6/2021
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