निशा अतुल्य

आईना
ताँका 
5,7,5,7,7

निश्छल प्रेम
आज क्यों भटकता
यहॉं से वहाँ
सतत जो साधना
जीवन का आधार ।

तृष्णा बढ़ती
राह है भटकाती 
अधीर मन
मूंद नैन भागता
न जाने कहाँ कहाँ।

बंधन प्यारा
जीवन है अधूरा
बिन प्रेम के
है भले जग मिथ्या 
शाश्वत प्रेम सत्य ।

मन आइना
है तेरे ही कर्मो को
भागता है क्यों
स्वयं ही स्वयं से तू
कर मनन जरा ।

निर्मूल शंका
नहीं कोई समस्या
विचार तेरा
निर्भर समाधान
सोच पर ही सदा ।

स्वरचित
निशा"अतुल्य"

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