ग़ज़ल---
है अदा यह भी रूठ जाने की
कोई कोशिश करे मनाने की
हुस्ने-मतला---
इन अदाओं को हम समझते हैं
बात छोड़ो भी आने-जाने की
आज छाई हुई है काली घटा
याद आती है आशियाने की
एक दूजे को यह लड़ाते हैं
नब्ज़ पहचान लो ज़माने की
आजकल हर बशर के होंठों पर
सुर्खियां हैं मेरे फ़साने की
उड़ रहे हैं परिंद जो हर सू
जुस्तजू है इन्हें भी दाने की
कौन कब तक किसी के साथ चले
किसमें ताक़त है ग़म उठाने की
प्यास इतनी शदीद है *साग़र*
कौन जुर्रत करे बुझाने की
🖋️विनय साग़र जायसवाल ,बरेली
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एक संशोधन के बाद 🙏
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