प्रवीण शर्मा ताल

मनहरण घनाक्षरी


रश्मियाँ झांकी गगन ,
धरा पर है   मगन ।
 देखो धरती माता की ,
 ये कितनी शान है।

ओस भरी बुलबुले,
मन द्वार खुलखुले।
लुढ़ककर आई है,
किसकी ये आन है।

हलधर सोचे आज,
फसलों की होती लाज।
खेतों में बिछती यह,
हरी -हरी जान है।

भोर उठे राम राम,
 लचकी रश्मियों  में ही,
करे योग  हम सब,
 तन मन  शान है।

प्रवीण शर्मा ताल

कोई टिप्पणी नहीं:

Featured Post

दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...