समय नहीं था
छिटकी तो थी धूप
कभी मेरे
आशियाने पर भी
बसंत ने भी
दी थी दस्तक
मेरे दरवाजे पर
महकते फूल
झांक रहे थे
खिड़कियों से
मगर मैं ही
उलझा रहा उलझनों में
अपनी
हावी था अर्थ-शास्त्र
मेरी खुशियों पर
बोझ था कर्म का मेरे
सर पर
उम्र तो थी ऐश करने की
मगर...
वक्त सही नहीं था मेरा
चटक धूप
गम की बदली में
छिप गई
बसंत भी द्वार खटखटा
थक हार कर
समेट ले गया दामन में
अपने सारे
महकते पुष्प
मैं कर्म और श्रम के
पसीने से तर
बैठा रहा अपने ही भीतर।
डा. नीलम
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