दूसरा-6
क्रमशः......*दूसरा अध्याय*(गीता-सार)
स्थिर जन जग बोलहिं कैसे?
चलहिं-फिरहिं-बैठहिं वइ कैसे??
सुनि अर्जुन कहँ,कह भगवाना।
स्थित-प्रज्ञ-पुरुष-पहिचाना।।
होय तबहिं जब त्यागि बासना।
आत्म-तुष्ट-नर-बिगत कामना।।
राग-क्रोध-भय-स्पृह-नासा।
स्थिर-बुधि जन रखु बिस्वासा।।
निंदा-स्तुति-उपरि सुभाऊ।
बिगत द्वेष,स्थिर-बुधि पाऊ।।
स्थिर बुद्धि कच्छपय नाई।
सकल अंग जिसु सिमट लखाई।।
बिषय-भोग,इंद्रिय-सुख रहिता।
अंग-प्रत्यंग जदपि नर सहिता।।
रागहिं निबृत-प्रबृत-परमातम।
होवहि स्थित-प्रज्ञ महातम।।
सुनहु,पार्थ स्थिर-बुधि सोई।
मम महिमा जाकर रुचि होई।।
विषयासक्ति कामना मूला।
बिघ्न कामना,क्रोधइ सूला।।
क्रोधहि देइ जनम मुढ़-भावा।
भ्रमित रहहि मन मूढ़-सुभावा।।
मूढ़-भ्रमित मन बुद्धिहिं नासा।
ग्यान-अभाव न श्रेयहिं आसा।।
दोहा-पर,जे नर अंतःकरण,रहही तासु अधीन।
निर्मल हृदयहिं सकल सुख,लहहि उवहि अबिछीन।।
अस प्रमुदित चित-मनइ नर,लहहि परम सुख जानु।
सुनहु पार्थ, बुधि-स्थिरहि,यहि जग होय महानु ।।
डॉ0हरि नाथ मिश्र
9919446372 क्रमशः.......