गज़ल
जयप्रकाश चौहान अजनबी
शीर्षक:--वो राज ना मिला
जितना दिया मैंने उसको वो मुझे आज ना मिला,
मूल की तो छोड़ो दोस्तो उसका वो ब्याज ना मिला ।
जो ना बन सकी मेरी हमसफर इतना चाहने के बाद भी ,
उसकी इस बेवफाई का मुझे आज कोई भी वो राज ना मिला ।
उसके जीवन की महफिल में लय,तरंग,धुन सजाई मैंने,
सब खुश थे इस रंगमंच पर मगर उसका मुझे वो साज ना मिला ।
मैं भी खड़ा कर देता एक ओर ताजमहल उसकी याद में,
लेकिन दोस्तो मुझे मेरा हमसफर वो मुमताज ना मिला ।
पता ना चला किस हवा के झोंके में उड़ गई वो ,
इस तरह से बदलने का मुझे वो अंदाज ना मिला ।
बहुत ही सावधानी से छाना मैंने उस गदले पानी को,
क्या करे दोस्तों *अजनबी* को आखिर गाज ही मिला ।
उस धोखे से थोड़ा झकझोर हुआ अब संभलकर चल रहा हूँ,
* अजनबी* को लेकिन अब तक हमसफर सा हमराज ना मिला।
जयप्रकाश चौहान * अजनबी*