प्रतिभा प्रसाद कुमकुम

(849)              प्रतिभा प्रभाती


नहीं चाहिए प्यार किसी का ।
यह धोखा और फरेब है ।


मन के गलियारे में राम बसा हो ।
मन मंदिर में पूजा अर्चन हो ।


मात पिता की सेवा करना ।
यहीं मंदिर गुरुद्वारा है ।


प्रात: प्रभात में प्रतिभा प्रभाती ।
सभी को नमन और वंदन है ।


अपना कर्म और धर्म करना है ।
मर्म मर्मग्य पकड़ाते हैं ।


दिल किसी का कभी न दुखाना ।
यही प्रथम सी पूजा है ।।



🌹 प्रतिभा प्रसाद कुमकुम
      दिनांक  10.2.2020.....


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डॉ राजीव कुमार पाण्डेय

पिता विषय पर अनुपम काव्य संग्रह है 'सृजक'
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संस्कार भारती गाजियाबाद द्वारा द्वारा आयोजित -'पिता सृजन काव्य महोत्सव'  न केवल अकल्पनीय, अविस्मरणीय था बल्कि एक कीर्तिमान भी था।कीर्तिमान इसलिये कि एक ही प्रांगण में 250 कवियों का कविता पाठ और एक ही विषय 'पिता' पर। 
कवियों ने सृजन किया पिता विषय पर और 'सृजक' के रुप में दूसरा कीर्तिमान बन गया जो अब आपके हाथों में पहुँच रहा है।
कवि,कथाकार,हाइकुकार,समीक्षक डॉ राजीव कुमार पाण्डेय और सुप्रसिद्ध लोकप्रिय हास्यकवि डॉ जयप्रकाश मिश्र के सम्पादन में प्रकाशित 'सृजक' काव्य संग्रह अनूठा,अद्भुत, अनुपम, इसलिए भी है क्योंकि केवल पिता विषय पर हिन्दी साहित्य जगत में प्रथम प्रयास है जिस ग्रन्थ में 116 रचनाकारों को सम्मलित किया गया हो।
संस्कार भारती के अखिल भारतीय संरक्षक पद्मश्री बाबा योगेंद्र जी को समर्पित 'सृजक' काव्य ग्रन्थ देखने में ही आकर्षक नहीं है बल्कि इसकी रचनाएं भी स्तरीय है। इस ग्रन्थ में राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय कवियों की मनोहारी कविताएं हैं, जो न केवल भावपक्ष की दृष्टि से सम्रद्ध हैं बल्कि कलापक्ष की दृष्टि से बेजोड़ हैं।
अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त गीतकार डॉ कुँवर बेचैन, श्री कृष्णमित्र,डॉ वागीश दिनकर, डॉ वी के वर्मा शैदी,डॉ कुँवर वीर सिंह 'मार्तंड' सहित कुल 116 शब्द साधकों की अनुपम रचनाओं से यह ग्रन्थ अमूल्य बन गया है जो सहेजने योग्य है।
बेल्जियम से वरिष्ठ शायर श्री कपिल कुमार,जापान से कोमल सम्बेदना की कवयित्री डॉ रमा सिंह, नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ विधान आचार्य , डॉ वासुदेव काफले, डॉ प्रियम्बदा काफ़्ले की उपस्थिति से सृजक ग्रन्थ को नयी ऊंचाई प्राप्त हुई है।
यह ग्रन्थ कई मायनों में विशेष है। इसमें सभी कवियों को वर्णानुक्रम में प्रकाशित किया गया है।
पिता की महिमा में रचित इस ग्रन्थ की अंतर्यात्रा करते हुए कुछ वानगी के रूप में यहाँ रखने का प्रयास कर रहा हूँ-
डॉ कुँवर बेचैन साहब की ये पंक्तियां ये पंक्तियां भाव विभोर कर देती हैं-
 "ओ पिता तुम गीत हो घर के
और अनगिन काम दफ्तर के।"


वरिष्ठ कवि एवं शिक्षाविद डॉ अनिल वशिष्ठ कहते हैं-
"घर का पहरेदार खुद को बस बताता है पिता।
प्यार ममता को लुटाकर घर चलाता है पिता।"


पिता दिखने में कितने कठोर किन्तु ह्रदय से कितने कोमल होते हैं यही भाव लिये डॉ अंजू सुमन साधक का यह दोहा-
पिता नारियल से दिखे, धर कठोर आकार।
सन्तानों पर कर रहे,'सुमनों' की बौछार।


वर्तमान परिदृश्य में संस्कारों की कमी आती है तो शायर कपिल कुमार का अंदाज कुछ इस प्रकार होता है-
जो तुतलाते फिरते थे कुछ रोज पहले,
बड़ों से जुबां अब लड़ाने  लगे  हैं।


कोलकाता से साहित्य त्रिवेणी पत्रिका के सम्पादक वरेण्य गीतकार डॉ कुँवर वीर सिंह मार्तंड जी लिखते हैं-
पिता विटप है जीवन की सब तपन सहा करता है।
लता गुल्म सम सन्तानों को छाँव दिया करता है।
माँ की ममता  सन्तानों को बड़ा किया करती है।
किन्तु पिता की इच्छा उनको खड़ा किया करती है।


गीतिकाव्य परम्परा की वरिष्ठ कवयित्री एवं कंठ कोकिला  नेहा वैद का यह मुक्तक-
करें घर भर का हित जैसे कि इक सूरज हैं बाऊजी।
अगर है माँ धरा फिर उसकी हर सज धज हैं बाऊजी।
सहें खुद ग्रहण को करते न उफ लेकिन प्रदूषण से,
हुए हैं आग का गोला कि इक अचरज हैं बाऊजी।


डॉ मधु चतुर्वेदी अपनी रचना में अपने पिता को पुनः अगले जन्म में भी पाना चाहती है-
परमपिता से यही प्रार्थना,जब जब जन्म मिले।
उसके जैसा नहीं,मुझे बस वो ही पिता मिले।


जापान की कवयित्री डॉ रमा शर्मा   भावों के सागर में खो जाती है और कहती हैं-
पिता है बस इक खामोश माली सा
रखता ख्याल अपने बाग के
हर फूल का हर डाली का।


मैंने भी अपने मन की बात इस प्रकार कही है-
पंच तत्व से निर्मित  काया,
सुन्दर तन मन जीवन पाया
रोम-रोम है  ऋणी  तुम्हारा
रग रग में अस्तित्व समाया
वही सृजन के बीज आज तज, महकरहें हैं इस उपवन में।
हम उनको नमन करें।।


वरिष्ठ शायर श्री राज कौशिक की ग़ज़ल का एक शेर  कुछ यूँ हुआ है-
सभी बच्चों को आँगन में तो चलना माँ सिखाती है।
जमाने में चलें।  कैसे पिताजी ही   सिखाते हैं।


डॉ वागीश दिनकर की कविता  में भाव,शिल्प के साथ भाषा भी बड़ी परिमार्जित होती है। कुछ पंक्तियां देख लीजिए-
पूज्य   पिताजी शत शत  मधुमासों को देखें हर्षाएं।
इनका ज्योतित जीवन शत शत शरच्चन्द्रिका छिटकायें।
कवितामय आदेश प्राप्त कर मंगल मोद मनायें हम,
रोग दुख सब दूर रहें सुखमय जिजीविषा मुस्काये।


काठमांडू नेपाल से प्रो0 डॉ विधान आचार्य बचपन की स्मृतियों को कुछ शब्द इस प्रकार कह देते हैं-
मेरे लिये बाबूजी ही झूला थे,घोड़ा थे
थैले के अंदर एक हवाई जहाज थे
बाबूजी ही बिस्किट थे,पानी थे 
बाबू जी मेरे आप ही सब कुछ थे।


श्री चन्द्रभानु मिश्र की के गीत बड़े मार्मिक होते हैं उन्हें पढ़कर, सुनकर करुणा का भाव अनायास आ जाता है-
प्राण तजे थे केवल दशरथ,राम विरह में आहत हो।
अवधपुरी में और न कोई,जिसमें इतनी चाहत हो।
सिर पर लिये कन्हैया अपना, यमुना जी के पानी में।
वासुदेव सा पिता कहाँ है,कान्हा की  निगरानी में।


डॉ जयप्रकाश मिश्र की इन पंक्तियों में पिता के चरित्र को उभारने का प्रयास सफल रहा है-
बोझ ढोता रहा जान जब तक रही।
ना बनूँ  बोझ मैं बात ठनती रही।
खाँसने से कोई जाग पाए नहीं।
सोचकर यह गले को दबाता रहा।


श्री कृष्णमित्र जी की ये श्रेष्ठ पंक्तियां सदा प्रेरणा दायी रही है इस ग्रन्थ के लिये-
पिता कुलवंश की परिपाटियों का जन्मदाता है।
पिता ही पीढ़ियों की सृष्टि का अनुपम विधाता है।
पिता सम्पूर्णता के हर नियम की रूपरेखा है।
पिता है ओम का अक्षर जिसे हर युग ने देखा है।


इस प्रकार पिता के चरणों में 116  रचनाकारों ने अपनी भावांजलि दी है वे इस प्रकार हैं
अभिलाषा विनय,अटल मुरादाबादी,अतर सिंह प्रेमी, अंजु सुमन साधक,डॉ अनिल वशिष्ठ, अनन्त  लक्ष्येन्द्र,अरुण कुमार,अरूण गढ़वाल,अरुण कुमार शर्मा,अशोक राठौर,अशोक विश्नोई,अवधेश कुमार 'निर्भीक',आवरण अग्रवाल,उमाशंकर दर्पण,उमेश श्रीवास्तव, ऊषा भिड़वारिया,ऋतु गुप्ता,कमलेश संजीदा,कपिल कुमार,डॉ कल्पना दुबे,कृष्ण मित्र, डॉ कृष्ण कांत मधुर,कृष्ण कुमार दीक्षित,डॉ कुंवर बेचैन,कुंवर देवेन्द्र,डॉ कुंवर वीर सिंह 'मार्तंड', केशव प्रसाद पाण्डेय,गार्गी कौशिक,गोपाल गुंजन,चंद्रभानु मिश्र,चारु अग्रवाल,जगदीश प्रसाद गुप्त,जगदीशचन्द्र वर्मा 'अनन्त',डॉ जयप्रकाश मिश्र,जयप्रकाश रावत,जयशंकर प्रसाद द्विवेदी,डॉ जयसिंह आर्य, जयवीर सिंह यादव, डॉ तारा गुप्ता,तूलिका सेठ,दिनेश दत्त शर्मा वत्स,दिनेश दुबे'निर्मल',दिव्य हंस दीपक, नन्दकिशोर सिंह,नरेशकुमार,निवेदिता शर्मा ,नीलू गोयल,नेहा वैद, पारो चौधरी, प्रदीप गर्ग 'पराग', प्रद्योत पराशर,प्रशांत दीक्षित, प्रशांत मिश्र, प्रेम सागर 'प्रेम', डॉ प्रियम्बदा काफ़्ले, बाबा कानपुरी,बी एल गौड़, बी के वर्मा शैदी, ब्रजनारायन लाल श्रीवास्तव'बृज',ब्रह्मप्रकाश वशिष्ठ 'बेबाक',भोला सिंह,मदनलाल गर्ग,डॉ मधु चतुर्वेदी, मधुबाला श्रीवास्तव, मनोज गर्ग मन्नू,मंजू गुप्ता,मानसिंह बघेल,मित्र गाजियाबादी,डॉ मीनाक्षी सक्सेना कहकशां,डॉ मीनाक्षी शर्मा,डॉ मेजर प्राची गर्ग,यशपाल सिंह चौहान,रचना वानिया,डॉ रमा शर्मा, रमेश प्रजापति,राजकुमार  शर्मा,राजकुमारसिसोदिया सिसोदिया,राज कौशिक,डॉ राजीव कुमार पाण्डेय,राजीव सिंघल,राजू राज,राजेन्द्रकुमार बंसल,राम चरण सिंह'साथी',रामस्वरूप भास्कर,रीता जय हिन्द,लक्ष्मी शर्मा 'श्री'डॉ वागीश दिनकर,डॉ वासुदेव काफ़्ले,डॉ विधान आचार्य,डॉ वीणा मित्तल, विजय कौशिक, विनय विक्रम, विवेक निर्मल,विनोद कुमार हैसोड़ा,वी के मेहरोत्रा
 स्नेहलता भारती,सरोज त्यागी,डॉ सरोजिनी तनहा,सुधीर कुमार,डॉ सुभाषिनी शर्मा,सुरभि सप्रू,डॉ सुरेश यादव दिव्य,सुरेन्द्र शर्मा 'उदय',संजीव शर्मा,सुषमा सवेरा,सुधीर कुमार,सोनम यादव, सोमवार शर्मा,डॉ श्वेता त्यागी,शशि त्यागी,शुभ्रा दीक्षित,शिव भोलेनाथ श्रीवास्तव,शैलजा सिंह ,डॉ हरिदत्त गौतम 'अमर', हिमाचल कौशिक ।
इन कवियों की ये कविताएं  कविताएं नहीं बल्कि ऋचाएं हैं 
जिन्हें पूजा घर में रखकर नियमित पाठ कर पितृऋण से उऋण हुआ जा सकता  है। इन कविताओं की व्यंजना को ह्रदय में उतारा जा सकता है,आत्मसात किया जा सकता है।
घर के वातावरण को संस्कारमय बनाने के लिये यह ग्रन्थ घर घर पढ़ा जाना चाहिए।
पिता विषय पर अतुलित अपरमित साम्रगी का अनूठा दस्तावेज है यह ग्रन्थ। इन सभी साधकों की लेखनी को बारम्बार नमन करते हुए अखण्डित शुभकामनाएं भी देता हूँ कि इसी प्रकार अपने सृजन में रत रहकर संस्कार की कविताएं रचते रहें।


   'सृजक '
काव्य संग्रह


सम्पादक
डॉ राजीव कुमार पाण्डेय
डॉ जयप्रकाश मिश्र


प्रकाशक
जिज्ञासा प्रकाशन गाजियाबाद
मूल्य- 250 रुपये


प्रस्तुति 
डॉ राजीव कुमार पांडेय
कवि,कथाकार, हाइकुकार,समीक्षक
1323/भूतल वेबसिटी
सेक्टर-2 गाजियाबाद
मो0 9990650570
ईमेल-kavidrrajeevpandey@gmail.com


अमित अग्रवाल 'मीत'

*"घर के आंगन से उठता स्याह धुआं"*


घर के आंगन से उठता वो स्याह धुआं,
अहसास दिला देता था, मां के घर पे होने का...


रसोई से आती भोजन की लाजवाब खुशबू,
बढ़ा देती थी बरबस ही भूख सबकी...


कभी एक पल भी नहीं सोचा हमने,
कि ये धुआं खराब कर सकता है मां की आंखें...


न ये सोचा कि चूल्हे से उठता ये धुआं,
बिगाड़ सकता है उनकी तबियत कभी भी...


हमें तो सिर्फ पेट की भूख ही नजर आयी,
नहीं नजर आया मां की आंखो से बहता पानी...


वो पानी, जिसकी वजह चूल्हे से उठने वाला धुआं था...
वही स्याह धुआं,
जो अहसास दिला देता था, मां के घर पे होने का...


- रचनाकार
अमित अग्रवाल 'मीत'


प्रिया सिंह लखनऊ

हिस्से में मेरे चार कोने का मकान नहीं आता
थका बहुत पर सफर में मेरे मचान नहीं आता


बुलन्दी कितनी....हासिल कर लें सब इन्सान 
छुअन महसूस कराने वो आसमान नहीं आता


दीमकों ने खोखला बना दिया जिस्म को सखी
के फिर से मजबूत करने का अरमान नहीं आता


बहुत सम्भाल कर रखते हैं "गुल" तितलियों को
अब तो नजरों में बेनज़ीर के सम्मान नहीं आता


बहुत कम कहना है मुझे समझना बहुत है तुम्हें 
हर शब्दों के लिफाफे में वेद- कुरान नहीं आता


 



Priya singh


नूतन लाल साहू

प्रभु का भजन
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठो पे नाम तुम्हारा हो
चाहे स्वर्ग मिले या नरक मिले
हृदय में वास, तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
तन श्याम नाम की चादर हो
जब गहरी नींद में,सोया रहू
कानो में मेरे गुंजित हो
कान्हा बस,नाम तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
रसते में तुम्हारा,मंदिर हो
जब मंजिल को,प्रस्थान करू
चौखट पे तेरी मनमोहन
अंतिम प्रणाम हमारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
उस वक्त कन्हैया,आ जाना
जब चिता में,जाके शयन करू
मेरे मुख में तुलसी,मन में राम
इतना बस काम,तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
अगर भक्ति की है,मै तुम्हारी
तो मुझको ये,उपहार मिले
इस भक्त का सावरिया
जन्म दुबारा,जग में न मिले
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
चाहे स्वर्ग मिले या नरक मिले
हृदय में वास तुम्हारा हो
जब छोड़ चलू,इस दुनिया को
होठों पे नाम तुम्हारा हो
नूतन लाल साहू


प्रवीण शर्मा ताल*

*है कहां जिंदा ईमान अब?*



अंधे बनके रह गए कानून
प्रजातन्त्र में फैला हनीमून
लोकलाज की बनी सत्ता
झूठ बिका इतना सस्ता।


तोड़ दी न्याय की कमान जब
है कहां  जिंदा ईमान अब।


निर्भया को नही मिला न्याय
गढ़ा कहां अन्याय का डंडा,
खुश हो रहा वो अब  दरिंदा
 लटका कहां  फांसी का फंदा।


 है  कहां रक्षक संग्राम जब,
है कहां जिंदा ईमान अब ।


जनगणमन अधिनायक गाते है
जय जवान का नारा गुँजाते है
 न्याय नही मिला उस माँ  को
मोहरा बना के आँसू बहाते है।


है कहां जिंदा  विधान अब
 है कहां जिंदा ईमान अब ।


शिक्षा दीक्षा सब धूमिल हो गई
प्रजातन्त्र में कहाँ भूल हो गई
 देकर रिश्वत का लालच  उसे
सत्य के दरवाजे पर धूल हो गई।


न्याय बिका खुलेआम जब,
है कहां जिंदा ईमान अब।


सीता ,सावित्री ,द्रोपदी अपनी
लुटती अस्मिता को पुकार रही 
उड़ते उड़ते दुर्वशासन ,रावण से
चोरहे पर अपनी जान छुड़ा रही।


खोज रही नारी सम्मान जब,
है कहां जिंदा ईमान अब ।।


पैसा रुपया बाजार गर्म है
पांडाल में दिखावा कर्म है
क्या यही इंसानियतता का
बाबा साधु  इंसान का धर्म है।


चीत्कार बढा  परवान जब
है कहां  जिंदा ईमान अब ।


 


*✒प्रवीण शर्मा ताल*


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
         *"आंगन"*
"महकता रहे जीवन आंगन,
हर पल खिलते रहे फूल।
अपनत्व के आंगन में साथी,
दे न अपना कोई शूल।।
कर देना तुम क्षमा साथी,
अपनो से हो जाये भूल।
प्रेम पथिक तुम बन साथी,
बन जाना जीवन का मूल।।
आस्था-विश्वास से ही ही तो,
अपनत्व के खिलते फूल।
अपनो के आधात से ही,
तन-मन में चुभते शूल।।
चाह यही साथी अब जग में,
हो न जाये कोई भूल।
महकता रहे जीवन आंगन,
हर पल खिलते रहे फूल।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः        09-02-2020


डा0विद्यासागर मिश्र"सागर" लखनऊ उ0प्र0

आज का सृजन
भारतीय नारियो को कहते जो अबला है,
यह बात बन्धु मेरे समझ न आयी है।
वक्त पर रक्त को चढ़ाया मातृभूमि पर,
रण्भूमि आने मे भी नही शर्मायी है।
दांत खट्टे कर दिये रण्भूमि बैरियो के,
काटि काटि मुंड रण भूमि मे गिरायी है।
वीर पृसूता यहाँ की नारियाँ सदैव रही,
इसीलिए नारी यहाँ सबला कहायी है।।
रचनाकार 
डा0विद्यासागर मिश्र"सागर"
लखनऊ उ0प्र0


संजय शुक्ल कोलकाता।

हथेलियों की दुआ साथ लेके आई हो।
कभी तो रंग मेरा हाथ की हिनाई हो।।


कोई तो हो जो मेरे मन को रोशनी कर दे।
किसी का प्यार सबां मेरे नाम लाई हो।।


आरिज़े गुल की छुवन खुशबू-ए वफ़ा लाई।
किसी के हाथ की खुशबू बहार लाई हो।।


कभी तो हो मेरे घर में भी ऐसा मंज़र ।
बहार खुद ही मेरी खिडकी से मुस्कुराई हो।।


वो सोने-जागने का मौसमों का फुसूं ।
संजय नींद में हो मगर नींद भी न आई हो।।


✍🏻रचनाकार: संजय शुक्ल
कोलकाता।


हलधर जसवीर

कविता -किसान कवि 
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मैं राही हूँ तूफानों का ,खुद अपनी राह बनाता हूँ ।
दुनियाँ अवरोध बिछाती है ,मैं ठोकर मार हटाता हूँ ।।


कांटों की तो परवाह नहीं ,पर फूलों से डर लगता है ।
मरुथल का तो मैं आदी हूँ ,रस गूलों से डर लगता है ।
आँधी की तेज हवायें तो ,मंजिल आसान बनाती है ।
अंगार साथ ले चलता हूँ ,पिघलाकर प्यास बुझाता हूँ ।
मैं राही हूँ तूफानों का ,खुद अपनी राह बनाता हूँ ।।1


है आँख मिचौली जीवन से ,सौ बार मरा फिर आया हूँ ।
मरघट का मैं वासिन्दा हूँ ,कुछ दिन उधार के लाया हूँ ।
है मौत सहेली सी मेरी ,जीवन से रार ठनी रहती ।
इस जन्म मरण के घेरे में ,मैं बार बार फस जाता हूँ ।
मैं राही हूँ तूफानों का ,खुद अपनी राह बनाता हूँ ।।2


पैरों में छाले ज्यों पड़ते ,पग की गति बढ़ती जाती है ।
चट्टानें आगे को बढ़कर ,पैरों को खुद सहलाती है ।
दिन का रस्ता दिखलाती है ,खुद नागिन सी काली रातें ।
अवरोधों को आधार बना ,मैं गीत राष्ट्र के गाता हूँ ।
मैं राही हूँ तूफ़ानों का ,खुद अपनी राह बनाता हूँ ।।3


सुख दुख सिक्के के पहलू हैं,तो इनका गम करना कैसा ।
ऊपर सबको खाली जाना ,तब साथ न जाएगा पैसा ।
छंदों में द्वंद्व बांधने को , हलधर "की कलम दौड़ती है ।
आशीष मिला धरती मां का,यूं गीत नए लिख  पाता हूं ।
मैं राही हूँ तूफ़ानों का ,खुद अपनी राह बनाता हूँ ।।4


हलधर -9897346173


डॉ0 नीलम अजमेर

*यादों का मरकज़*
********************
आज भी याद है वो
पुश्तैनी गाँव का वो मकां
जहाँ मेरी खुशियों के मरकज़ की खुशबू आज भी मौजूं हैं
वो छायालोक का 
गुंजलक, है मेरे रुहानी आशियां को,अपने पाश में लपेटे बड़े प्यार से,
खोल रखा है बस 
झरोखा एक यादों का,
जहाँ हर रोज़ रात के 
सन्नाटों में,
दिल की चादर ओढ़ 
रुह मेरी घूम आती है,
और छूकर उन
दीवारों को
यादों से लिपट जिंदगी पा आती है
हारने नहीं देती 
फिर मुझे 
जीवन की किसी भी
लड़ाई में,
हर वक्त सुरक्षित
महसूस करती हूँ
अपने आप को,
मानों मेरे बुजर्गों की
रुहानी चादर ने
अपने आशीष के
आगोश में ले
संवारी हो मेरी रुह।


          डा.नीलम


कुमार कारनिक

*******
    कुमार कारनिक
(छाल, रायगढ़, छग)
"""""""
   मनहरण घनाक्षरी
     नवभोर आई है
     """""""""""""""""'
डाली   जब  लहकी है,
चंदन   सी   महकी  है,
चिड़ियाँ भी  चहकी है,
        नवभोर आई है।
🌞💐
शहर   गली   व   गाँव,
सुख की  बिखरे छाँव,
तरूणों  के  मन  भाव,
       छाई तरूणाई है।
🌷💐
बित गई निशी  काली,
सूरज की फैली लाली,
नित  सुख  देने  वाली,
        चली पूरवाई है।
🌞🌹
पहला  ये  काम  करो,
सबका   प्रणाम  करो,
लेख   अविराम  करूँ,
    सभी को बधाई है।



                  *******


डाॅ शेषपालसिंह 'शेष' ,आगरा-

🍏🌻  *प्रकाश*  🌻🍏
             *******


           [ गीतिका ]


 ब्रह्म   हूँ,  ब्रह्माण्ड  हूँ  मैं,
 तत्व    हूँ,  आकाश     हूँ।
 सूर्य  हूँ  मैं,  चन्द्र   भी  हूँ,
 भव्य - दिव्य   प्रकाश  हूँ।


 क्षय  तमस  के   हेतु  मेरा,
 तय    सतत   सत्कर्म   है,
 ज्ञान  का भंडार  व्यापक,
 बुद्धि   का   विन्यास   हूँ।


 अंतहीन, अनंत    हूँ    मैं,
 सत्य  अटल   विशेष  भी,
 हूँ   बटोरे   शक्ति   महती,
 अंधकार     विनाश     हूँ।


 मैं  पुजारी  हूँ  समय   का,
 सेव्य    हूँ    साक्षात     मैं,
 सृष्टि  का  मधुमास  भी हूँ,
 मैं    नहीं     खग्रास     हूँ।


 शारदा   हूँ   मैं, विशद   हूँ,
 वर्त -  भूत  -  भविष्य  भी,
 लोक-जग-त्रयलोक का मैं,
 देव     हूँ,   इतिहास     हूँ।


 बहिर्अंतर्वास       मैं      हूँ,
 ज्ञान     हूँ,   विज्ञान      मैं,
 चक्षु      हूँ      अंतर्विवेकी,
 खोलिए     आभास     हूँ।


 ओ3म्  मैं  हूँ, व्योम  मैं हूँ,
 व्याप्त    हूँ     सर्वत्र     मैं,
 आस     हूँ,   विश्वास    मैं,
 शाश्वत-सतत  उल्लास हूँ।


          ●●>><<●●


 *● डाॅ शेषपालसिंह 'शेष'*
      'वाग्धाम'-11डी/ई-36डी,
      बालाजीनगर कालोनी,
      टुण्डला रोड,आगरा-282006
      मोबाइल नं0 -- 9411839862


🍏🌻🍀🌹💙🌹🍀🌻🍏


रोहित मित्तल रोहित लखीमपुर

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नीलकंठ डमरू वाले जिनके हैं सब चाहने वाले....
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नीलकंठ डमरू वाले........
पीते हैं विष के प्याले....... 
जो भी बोलता बम बम भोले......
खुलते हैं किस्मत के ताले..........


नीलकंठ डमरू वाले पीते हैं विष के प्याले.....
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प्यारा पुत्र हैं एक षडानन........
दूजे विनायक देखो गजानन....
गौरापति श्री महादेव है .......
सारी सृष्टी के रखवाले.........


नीलकंठ डमरू वाले पीते हैं विष के प्याले..... 
🕉 🕉 🕉 🕉 🕉 🕉


सृष्टि के हैं भाग्यविधाता......
जिनकी कृपा दृष्टि जन पाता.....
कालों के भी महाकाल हैं..........
क्रोधी भी हैं और रखवाले.........


नीलकंठ डमरू वाले पीते हैं विष के प्याले.....
 🕉 🕉 🕉 🕉 🕉 🕉


भोले की तो आन रिद्धि है......
भोले की तो शान सिद्धि है.....
शीश विराजे गंगा मईया........
भूत प्रेत  संगी मतवाले.........


नीलकंठ डमरू वाले पीते हैं विष के प्याले..... 
🕉 🕉 🕉 🕉 🕉 🕉


गले मुंड की शोभे माला.......
दुखीयों के हैं दीनदयाला......
नंदी सम्मुख सदा विराजे......
ऐसे शंभू भोले भाले...........


नीलकंठ डमरू वाले जिनके हैं सब चाहने वाले...
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नीलकंठ डमरू वाले पीते हैं विष के प्याले..... 
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     🌻 🚩रोहित मित्तल ❝रोहित❞🚩 🌻 
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अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक सवैया



मुख डारे केश राशि शोभित वो अधरन मधु छलकाती हैं।
सुधबुध खोए सब देखत ही वह  अइसे  नैन  मिलाती हैं।
मनमोहक रूप अनूप लिये  चढ़ि  झरूखा मृदु  मुस्काती हैं।
"अभय" कैसे बखान करै वह ह्रदय को बहुत सुहाती हैं।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


प्रिया सिंह लखनऊ

महबूब के हाथों से चॉकलेट खा....रहें थें वो
जाने कौन सा त्यौहार था जो मना रहें थें वो 



Priya singh


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

दोहा


कैसे  कह   दूँ  बेवफ़ा,  तुमको  मैं  सरकार।
लब पर तल्ख़ी हैं मगर, दिल  में रहता प्यार।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


अनीता मिश्रा सिद्धि झारखण्ड

मन से मन का बन्धन हो।
💐💐💐💐💐💐


तुम भी मौन  मैं भी मौन,
फिर भी दोनों के हृदय में स्पंदन हो।


तुम मत सोचो न मैं सोचूँ,
फिर भी भावों का सँगम हो।


मैं हूँ दूर तुम भी दूर ,
मिलन की बस तड़पन हो।


तुम मत गाओ नहीं मैं गाऊँ,
फिर भी सुरों का नर्तन हो।


इस बसन्त में आज है कहना,
मन से मन का बंधन हो।


अनीता मिश्रा 
8/2/2020
💐💐💐


रवि रश्मि 'अनुभूति ' मुंबई

 


    गीत 
÷÷÷÷÷÷÷
प्रदत्त पंक्ति --
मोहन मधुर बजाए बंशी , 
      प्रेम मगन हो इतराऊँ ।
मात्रा भार  --  16 , 14 .


धुन कोई भी गाये बंशी , 
      मैं भी संग सदा गाऊँ ।
मोहन मधुर बजाए बंशी , 
      प्रेम मगन हो इतराऊँ ।।


लहरें मन में उठें तरंगित , 
      झूम झूम लो उतरातीं ।
मचल मचल कर अब देखो तो , 
      अपना ही हाल सुनातीं । 
मैं भी लहरा कर सुन लो अब , 
      डगमग बोली मैं जाऊँ।।
मोहन मधुर बजाये बंशी , 
      प्रेम मगन हो इतराऊँ ।।


मन में मोहन बसते सुन लो , 
      सदा रहें बातें यूँ ही ।
धड़कन में बसते हैं मोहन , 
      गाते रहते बस यूँ ही ।
रूठें नहीं कभी भी गिरिधर , 
      रूठें तो अभी मनाऊँ ।।
मोहन मधुर बजाये बंसी , 
      प्रेम मगन हो इतराऊँ ।


प्रेम पंथ ही जानूँ मैं तो , 
      और न जानूँ अब राहें ।
मैं उबरूँ तब ही तो सुन लो , 
      मोहना थाम लो बाँहें ।।
अधरों से मुरली अभी लगा , 
      धुन मधुर सुन मै बजाऊँ।
भक्ति भावना भर दो अब तो , 
     भव सागर मैं तर जाऊँ ।।
मोहन मधुर बजाए बंशी , 
      प्रेम मगन हो जाऊँ ।।
%%%%%%%%%%%%%%


संजय जैन (मुंबई )

*एक चेहरा दिखता है*
विधा : कविता


जहाँ पर हम होते है, 
वहां पर तुम नहीं होते।
जहाँ पर तुम होते हो, 
वहां पर हम नहीं होते।
फिर क्यों रोज सपने में, 
तुम मुझको दिखते हो।
 न हम तुमको जानते है,  
 और न ही तुम मुझको।।


ख्बवो का ये सिलसिला , 
 निरंतर चलता जा रहा।
हकीकत क्या है इसका,  
 नहीं है हमको अंदाजा।
किसी से जिक्र इसका,  
 मैं कर सकता नहीं ।
कही जमाने के लोग,
हमें पागल न समझ ले।।


रब से मै करता हूँ ,  
सदा एक ही प्रार्थना।
सदा खुश वो रहे,  
दुआ करता है संजय।
की तुम जो भी हो,
और रहते हो जहां पर।मिले सुखी शांति तुमको,
सदा अपने जीवन में।।


अनजाने में कभी मुझको,   
 अगर तुम मिल गए।
तो नज़ारे मत फेर लेना,  
हमें अनजान समझकर।
कही रब को भी हो मंजूर,  
हम दोनों का ये मिलाना।
की तुम दोनों बने हो बस, 
एकदूजे के साथ रहने को।।


 जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुंबई )
09/02/2020


एस के कपूर श्री हंस बरेली।

*विविध हाइकु।।।।।।।।।*


क्यों कैसे जाने
सुन के नहीं    देखें
तभी ही माने


अनजाने  में
गलती हो जाये तो
क्षमा मांग लें


जीवन डोर
प्रभु के हाथ छोर
न उसे छोड़


ये बचपना
जीवन का ये हिस्सा
एक सपना


रिश्तों के धागे
रखना   संभाल के
प्यार हैं   मांगे



वो जो थे हीरो
वक़्त  की  मार से
बनते   जीरो


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।।।।।बरेली*
मोब        9897071046
              8218685464


एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।।।।।।बरेली।

*जिन्दगी हँसाती भी है, रुलाती*
 *भी है।।।।।।।।।।।मुक्तक*


जिन्दगी हर समय हमें यूँ
ही जगाती  रहती है।


क्या कर रहे गलत हमें ये
भी बताती  रहती है।।


हंसाती भी यही  जिन्दगी
ये  है    गिराती   भी ।


जीते जो बस   अपने लिये
उन्हें रुलाती रहती है।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।।।।।।बरेली।।।*
मोबाइल  9897071046
              8218685464


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली।*

*विषय।।।।।।।।।प्रेम।।।।।।।।।।*
*शीर्षक।।।।।सबसे सरोकार ही जीवन है।।।।।।।*
*।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।*


जीवन प्रभु  का  दिया एक
अनमोल सा उपहार है।


मूल उद्देश्य  इसका  रखना
सबसे प्रेम सरोकार है।।


एक ही  मिला  जीवन फिर 
यह मिलेगा न  दोबारा।


यही हो भावना   कि  सारा
संसार एक परिवार है।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।।।।बरेली।।।।।*
मोबाईल   9897071046
                8218685464


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली।*

*हम खुद ही बिछाते हैं काँटे*
*अपनी राह में।।।।मुक्तक।।*


क्यों दिल में  इतनी  नफरत
और गुबार पाले  है।


आँखों  में  लिये   घूमता  तू 
ये  कैसे   जाले  है।।


जीवन का  सफर  तय होता
अमन ओ  सकूं से।


तू खुद ही क्यों बना रहा पांव
अपने  में  छाले है।।


*रचयिता।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।*
*मोबाइल*        9897071046
                   8218685464


निशा"अतुल्य"

*घरौंदा*
9/2/ 2020


मैं स्त्री 
बहुत कुछ संजोती हूँ खुद में
न जाने कितनी यादों के घरौंदे 
मेरे सीने में बने हैं ।
न जाने कितनों को पनहां देते हैं।
अक्सर सुना है मैंने 
की बाबुल के लिए पराई बेटी
पर अनुभव नही हुआ कभी
फिर बालम के घर 
दूसरे घर से आई नही सुना कभी।
हां अक़्सर लोगों से सुना कि 
स्त्री तेरा कोई घरौंदा ना बना
पर मैं करती हूं विरोध 
ऐसी भावनाओं का 
क्यों 
क्योंकि स्त्री वो सकारात्मक ऊर्जा है
जहां भी बैठी
पूरा घर उसके चारों ओर घूमता है।
और मेरा घरौंदा वहीं बन जाता है 
जहां मेरा कदम पड़ता है 
मैं स्त्री 
जंगल में भी मंगल कर 
प्राण फूँक देती हूं
उजड़े हुए दयारों में भी
स्पंदन भरती हूँ।
क्या है कोई घरौंदा मेरे बिना
जो लगे जीवंत 
महकता गुनगुनाता 
अपने मनोभाव जताता ।
हर घरौंदा जीवंत होता है 
माँ की उपस्थिति से 
हर नारी एक मातृत्व ही है 
हर रिश्ता निभाती माँ ही लगती 
चाहे बहन,भाभी, बेटी किसी भी रिश्ते में बंधी ।
बहार भी नही आती उस बिन 
जिस घर में स्त्री नही मुस्काती 
वो घर ईंट पत्थर के दीवारों का नक्शा भर है 
बिन स्त्री घरौंदा नही बन पाता ।
स्त्री की उपस्थिति जहां हो जाती
बहार गुंजों में खिल जाती
हर दीवार स्नेह से महक जाती 
हर वो जगह घरौंदा बन जाती ।
तो कभी न कहना नारी कि
मेरा कोई घर नही 
तेरा वजूद ही तेरे अपने परायों का घरौंदा हैं
जिसमें तूने ना जाने क्या क्या सजा रखा है 
स्त्री तू ख़ुद में प्रभु की बनाई वो कृति है
जो सृष्टि चलाने को बनी है
खुद में ही तू सम्पूर्ण घरौंदा है।


निशा"अतुल्य"


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