जयप्रकाश चौहान * अजनबी*

शीर्षक:-
अजीब जिंदगी का अजनबी सफर ...


किस्मत मिली थी मुझे सोने की कलम सी,
लेकिन उसकी स्याही में बहुत जहर था।


निकला था बहुत स्वर्णिम सवेरा मेरा,
लेकिन मिला मुझे दर्दभरा एक पहर था।


पुष्पों से सुसज्जित राह मिली थी मुझे,
लेकिन वहाँ मिला मुझे एक काँटोभरा डगर था।


दोस्त मिले मुझे दुनिया में बहुत ही अच्छे-अच्छे,
लेकिन मिला मुझे वो धोखेबाज हमसफर था।


हसीन वादियों में खिला ये * अजनबी* गुलाब,
लेकिन मिला मुझे मेरे माली के हाथ खंजर था।


जयप्रकाश चौहान * अजनबी*


रूपेश कुमार सीवान

 


*~~ तुम और मै ~~*


तुम और मैं ,
शायद एक डाली के दो फुल ,
कही काँटे तो कही कली ,
कोई नाजुक तो कोई कठोर ,
कोई दर्द देता है तो कोई दर्द लेता है ,
जिवन की यही रीति है ,
कोई रो रहा है कोई हँस रहा है ,
कही खुशियाँ मन रहा है कही आसूँ बह गया है ,
जिवन मे रास्ते भी अजनबी है ,
कब कहाँ अपना मिल जायें ,
ये कोई नही जानता ,
जो रुला कर चला जायें ,
लेकिन छोड़ जाता है ,
सिर्फ यादें ,
जो ना मरने देती है ,
और ना जीने देती है ,
क्या करूँ ,
मर भी जाऊगा तो ,
याद तुम्हें कौन करेगा ,
किसको सताओगी तुम ,
कौन तुम्हारी यादों मे ,
घुट-घुट कर मरेगा ,
तुम जो हो वो और नही हो सकता ,
तुम्हारी मुस्कान , तुम्हारी चाहत ,
तुम्हारी आँखे , तुम्हारी नजरें ,
तुम्हारी खवाबों का समंदर ,
तुम्हारी खनकती चाल , प्यार ,
जो सबमे नही वो तुममें है ,
तुम हो जो कोई नहीं ,
क्या बताऊँ तम्हें मै ,
तुम मेरी आरजु हो , तुम मेरी गुस्त्जू हो ,
तुम मेरी चैन , तुम मेरी रैन ,
तुम मेरी परछाई , तुम मेरी हरजाई ,
क्या बताऊँ तुम्हें , 
तुम मेरी जिवन की जन्म हो ,
तुम मेरी जिवन की मृत्यु हो ,
क्या कहूँ जो ना ना कहूँ ,
वो सब तुम ही तुम हो !


~ रूपेश कुमार©
छात्र एव युवा साहित्यकार
जन्म - 10/05/1991
शिक्षा - स्नाकोतर भौतिकी , इसाई धर्म(डीपलोमा) , ए.डी.सी.ए (कम्युटर),बी.एड 
(महात्मा ज्योतिबा फुले रोहिलखंड यूनिवर्सिटी बरेली यूपी)
वर्तमान-प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी !
प्रकाशित पुस्तक ~ मेरी कलम रो रही है
    छह साझा संकलन प्रकाशित
विभिन्न राष्ट्रिय पत्र पत्रिकाओ मे कविता,कहानी,गजल प्रकाशित !
कुछ सहित्यिक संस्थान से सम्मान प्राप्त !
पता ~ चैनपुर,सीवान 
बिहार - 841203
मो0-9006961354/9934963293
E-mail - rupeshkumar000091@mail.com
- rupeshkumar01991@gmail.💐💐💐


नन्द लालमणि त्रिपाठी (पीताम्बर )

2---ग़ज़ल - चाहत की ऊंचाई को बाजार नहीं बनने देते
 दिल सांसों धड़कन की गहराई में ही रहने देते !!
नादा हैं वो                             जो दुनिआ को नादान समझते रहते हैं                              शायद उनको नहीं मालूम नहीं लम्हा लम्हा दुनिआ के रंग बदलते है !!
लम्हा लम्हा रंग बदलति दुनिआ में नियत और ईमान बदलते रहते  है !!
 दिलोँ का दिल से  रिश्ता ही नहीं, रिश्तों के अब व्यापार भी होते रहते हैं ।।                           रिश्तों के बाज़ार हैं अब             रिश्तों के इन बाज़ारो में  रिश्तों के बाज़ार भी सजते रहते हैं !!
चाहत की ऊंचाई को बाजार नहीं बनने देते
 दिल सांसों धड़कन की गहराई में ही रहने देते !!
रिश्तों  की कीमत  मौका,और मतलब रिश्तों के बाज़ारों की दुनिआ में अक्कसर रिश्ते, रिश्तों की खातिर शर्मशार हो  नीलाम ही होते रहते हैं !।                     दुनिआ की भीड़ में भी इंन्सा तंन्हा खुद में खोया खोया खुद को खोजता ।।                           दुनिआ की भीड़ अक्सर नफ़रत की जंगो के मैदान बनते रहते है !!
 मतलब की नफ़रत की जंगो में इंन्सा एक दूजे का कातिल          लहू की स्याही की इबारत की तारीख बनाते रहते हैं !!
कभी परछाई भी ऊंचाई दुनिआ छू  लेने को पागलपन               कभी  ऊंचाई की तनहाई  छलकते आंसू ,जावा जज्बे के पैमाने से छलकते गुरूर का सुरूर दुनिआ को बताया करते हैं !! तंन्हा इंन्सा की तन्हाई उसकी परछाई की ऊंचाई की तन्हाई के आंसु ,ख्वाबों ,अरमाँ के मिलने और  बिछड़ने का खुद हाल बयां ही करते रहते !!
 चाहत की ऊंचाई को बाजार नहीं बनने देते
 दिल सांसों धड़कन की गहराई में ही रहने देते !!
नन्द लालमणि त्रिपाठी (पीताम्बर )


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर

1---तू ही है नाज़, तू ही है ताज ,है  जमीं तू ही यकीं आकाश तुझे क्या नाम दूं  जानम।।
 तू ही है जान ,तू ही पहचान , है तू दींन तू ही ईमान ,तू ही अल्ला है तू ईश्वर तू ही  कायनात है जानम तुझे क्या नाम दूं जानम।।
 चाहतो की है तू  चाहत, तू है मोहब्बत कि मल्लीका ,मैं दीवाना तेरा ,तू मेरे मन के आँगन की काली मैं भौरा हूँ परवाना।।
तू चाँद और चांदनी है, है  सावन की घटाए तू, तू ही मधुमास की मस्ती है ,है यौवन की बाला तू ।।
 तू ही बचपन, है जंवा जज्बा, तू ही जूनून, तू है ग़ुरूर ,तू ही हाला ,तू ही प्याला तू ही मधुशाला जानम तुझे क्या नाम दूं जानम।।                                     तू ही ख्याबो की ख्वाहिस है,है तू ही ख्वाबो की शहजादी।।
तू ही आगाज़ ,है तू अंदाज़  ,तू ही अंजाम है जानम तुझे क्या नाम दूं जानम।।
तू ही जाँ तू ही जहॉ तू ही जज्बा तू ही जज्बात है जानम।।
तू ही सांसे ,तू ही धड़कन, तू ही आशा, तू ही निराशा की आशा  विश्वाश जिंदगी का जानम।।
तू ही है प्रीत ,तू ही मनमीत ,तू ही संगीत है जानम तुझे क्या नाम दूं जानम।।
 तू ही स्वर हैं ,तू ही सरगम ,तू ही सुर संगीत है जानम तुझे क्या नाम दूँ जानम।।
तू है खुशियां है तू ख़ुशियों की खुशबु है तू ही मुस्कान है जानम।।
सुबह सूरज की तू लाली तू ही, प्यार यार का मौसम प्यारी  ,तू ही लम्हा , है तू ही सुबह और शाम जानम।।                              तुझे क्या नाम दू जानम ,तू दिल के पास है इतनी ,तू दिल की दासता दस्तक, तू दिन रात है जानम।।                                तू दिल का आज है जानम ,कभी ना होना कल  जानम, तू ही है जिंदगी का सच दर्पण जानम।।
तू ही हसरत की हस्ती है, तू ही मकसद की मस्ती है ,तू ही मंज़िल कारवाँ है जानम।।                    तू ही मांझी तू ही कश्ती तू ही मजधार तू ही पतवार तू ही शाहिल है जानम।।
तू ही है अक्स ,तू ही है इश्क तू ही है हुस्न तू ही दुनियां का है दामन जानम।।                                 तू है शमां  रौशन अंधेरों की उजाला  तू है चमन की बहार बहारों का श्रृंगार है जानम।।
तू ही है झील ,तू ही झरना, तू है दरिया  समन्दर जानम  ।।           तू ही शबनम है तू शोला तू है बूँद बादल जानम।।
 तेरी नजरों से दुनियां है ,तेरी नज़रों में दुनिया है ,तेरे साथ जीना तेरे संग मरना तू ही है आदि अंत जानम।। नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷       भिलाई दुर्ग छग

कुण्डलिया छंद



🥀टेडी दिवस🥀


 


टेडी वासर मानते,गांव शहर के लोग।
वेलेंटाइन डे बना,लगे प्रेम के रोग।।
लगे प्रेम के रोग,मनाने जनता सारी।
आया जैसा मास,बसंती मौसम प्यारी।।
कहे सूर्य यशवंत,खड़े हैं होकर रेडी।
प्रियवर हैं बेचैन,उपहार देने टेडी।।



🌷यशवंत"यश"सूर्यवंशी🌷
      भिलाई दुर्ग छग


कैलाश , दुबे ,

देने दो गर दुश्मन भी दगा दे जाये ,


गले लगा लो फिर से गर पनाह में आ जाये ,


मत फेंको आस्तीन के साँप को भी बाहर ,


भले कितना जहर भी उगल जाये ,


कैलाश , दुबे ,


गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली मस्तूरी, बिलासपुर छत्तीसगढ़

"बिक रहा है"
"""""""""""""""""""
बिक रहा है....
ये जमी और ये चन्द सितारे
कहीं आसमां तो सूरज की किरणें


कहीं सियासत तो कहीं साँसद की कुर्सियां
कहीं लोगों की भावना तो कहीं मजबूरियां


ये कैसी दौर है आई जमाने में
अब तो रिश्तों के नाम पर लेन-देन चल रहा है
कहीं दुल्हन तो कहीं दूल्हा बिक रहा है


हाय ! रे तमाशा सियासत की
कहीं नेताओं के हाथ देश की धरोहर
तो कहीं देश की ताकत बिक रहा है


डर है मुझे इस बात की 
कहीं असत्य के राह पर 
सत्य ना बिक जाए
यथार्थ हूँ मैं...
कहीं साहित्य के नाम पर कलम ना बिक जाए ।।


गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली मस्तूरी, बिलासपुर छत्तीसगढ़
©®


सुनीता असीम

क्यूं यहां आपने ये शोर मचा रक्खा है।
एक हमने भी यहाँ दीप जला रक्खा है।
***
तेरे वादे पे मुझे आज यकीं हो ही गया।
मेरे दिल ने तेरा जादू जो चढ़ा रक्खा है।
***
देवता तुझको बनाके मैंने की है पूजा।
तेरी तस्वीर को दिल में भी सजा रक्खा है।
***
तेरी यादों को सजाया मैंने ख्वाबों की तरह।
और तूने मेरी बातों को उड़ा रक्खा है।
***
तुम मुहब्बत की करो बातें अकेले हमसे।
क्या सताने में भला हमको मजा रक्खा है।
***
सुनीता असीम
१०/२/२०२०


सुरेंद्र सैनी बुवानीवाल  संपर्क -9466865227 झज्जर (हरियाणा

शायद मन डरता है.... 


दिल पागल है, 
हर ख़्वाहिश पे दम भरता है. 
मिलते हैं दो फूल जब भी, 
भंवरा इसी बात से जलता है. 


तेरी गुफ़्तगू कशिश भरी है, 
क्यों तेरी ख़ामोशी से मन डरता है. 


तेरे जज़्बात खुली किताब से, 
ये रूह का परिंदा पँख फड़कता है. 


तुम ऊपर से सख़्त अंदर से नर्म, 
तेरा व्यक्तित्व बार -बार अकड़ता है. 


हर मौसम का अपना मज़ा है, 
हर अदा के संग नया रंग बदलता है. 


कितना लिख डाला तूने नज़्मों में "उड़ता ", 
किसके दिल पर लगे, क्या पता चलता है. 



द्वारा - सुरेंद्र सैनी बुवानीवाल 
संपर्क -9466865227
झज्जर (हरियाणा )


udtasonu2003@gmail.com


सत्यप्रकाश पाण्डेय

मधुशाला में जाकर प्याले 
गम के मैं पीने लगा हूँ
पुरानी यादों का सहारा ले
अब मैं भी जीने लगा हूँ


समझता रहा जिंदगी जिसे
वह मुझसे दूर चली गई
मेरे दिल की हसरत थी जो
वही तो चेन निगल गई


सुर्ख जवानी ललचाती रही
और हम आहें भरते रहे
वो सैलाव बन दहलाती रही
हम पाने के लिए मरते रहे



अब मदहोश रहने लगा हूँ मैं
जाम जवानी का देखकर
और एक वह है निशफिक्र सी
हमारी हालत से बेखबर


बहुत जुल्मोसितम सह लिए
सत्य मत नादान तू बन
खुदबखुद आ जायेगी पास
तूही है उसका जीवन धन।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई

*BKN:0102*
*⚜ भोर का नमन ⚜*
(मेरी पुस्तक *गीत गुंजन* से) 


*हे मात तुम्हारे पदवंदन के, कैसे गीत सुनाऊँ मैं।* 
*अन्तर्मन के भाव कहूँ वे, शब्द कहाँ से लाऊँ मैं।।* 


*और तात के उपकारों का, हरगिज अन्त नहीं होता।*
*और गुरू के जैसा कोई, सचमुच संत नहीं होता।।* 
*जगत नियंता की गाथा को, कैसे तुम्हें बताऊँ मैं।* 
*अन्तर्मन के भाव कहूँ वे, शब्द कहाँ से लाऊँ मैं।।* 


*पुण्य मही ये पुण्य गगन ये, सूरज चाँद सितारे हैं।* 
*सागर पर्वत हे तरु तरुवर, सकल चराचर प्यारे हैं।।* 
*मनवीणा मे सजे तार पर, कैसे उन्हें बजाऊँ मै।*
*अन्तर्मन के भाव कहूँ वे, शब्द कहाँ से लाऊँ मैं।।* 


*अरि अरु मित्र मुझे प्रिय दोनों, प्यारा प्रिय परिजन परिवार।* 
*नमन भोर का अर्पण हे प्रिय, प्रियवर आप करें स्वीकार।।*
*मनभावों से लाड़ करूँ मै, कैसे तुम्हें मनाऊँ मैं।* 
*अन्तर्मन के भाव कहूँ वे, शब्द कहाँ से लाऊँ मैं।।*


सर्वाधिकार सुरक्षित 
ISBN:978819439204
*🌹ओम अग्रवाल (बबुआ), मुंबई*


मासूम मोडासवी

दिल में मचलती चाहको क्या कहुं भला
उनकी  बदलती राह को क्या कहुं भला


हंसते  हुवे  लगायेंगे  अपने  गले  हमें
लेकिन सीमटती बांह को क्या कहुं भला


बढती  रही  तमन्नाऐं  वस्लो  करार  की
बे  रब्त  इस  निगाहको  क्या कहुं भला


कुरबत की हसरतों में  तन्हाइयां  मिली
हाले  दिले  तबाह को  क्या  कहुं भला


मासूम फिराक सहेते रहे अपनी जानपे
उनकी अधुरी पनाह को क्या कहुं भला


                         मासूम मोडासवी


बलराम सिंह यादव अध्यात्म व्याख्याता पूर्व प्रवक्ता बी बी एल सी इंटर कालेज खमरिया पण्डित

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी।।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस सन्त गुन ग्राही।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  इसके विपरीत कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी राम के नाम और यश से युक्त जानकर बुद्धिमान लोग उसे आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं क्योंकि सन्तजन भौरों की भाँति गुणों को ही ग्रहण करने वाले होते हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  रामनाम जस अंकित कहने का तात्पर्य यह है कि जैसे किसी राष्ट्र की मुद्रा पर उस राष्ट्र का प्रतीक चिन्ह होता है चाहे वह मुद्रा किसी धातु की हो अथवा कागज,प्लास्टिक या अन्य किसी वस्तु की।यदि वह मुद्रा उस राष्ट्रीय चिन्ह से युक्त है, तभी उसकी मान्यता है और सभी उसका सम्मान करते हैं तथा वस्तु विनिमय में उसका उपयोग करते हैं।बिना राष्ट्रीय चिन्ह के कोई भी उसे ग्रहण नहीं कर सकता है क्योंकि वह अमान्य है।इसी प्रकार राम नाम से युक्त वाणी अथवा कविता का सभी सन्तजन पूर्ण सम्मान करते हैं।जैसे कागज पर भी छपे हुये नोट का सभी सम्मान करते हैं यद्यपि उस कागज का वास्तविक मूल्य उतना नहीं है किन्तु राष्ट्रीय चिन्ह से युक्त वह कागज का नोट अथवा स्टाम्प मूल्यवान माना जाता है।
यहाँ गो0जी ने गुण ग्रहण करने में सन्तों की तुलना भौरों से की है।भौंरा सुगन्धित पुष्पों का रस ग्रहण करता है भले ही वे पुष्प कहीं भी खिले हों।वह पुष्पों के रङ्ग,रूप और जाति का विचार नहीं करता है।वह तो केवल उसकी सुगन्ध व रस से ही सम्बन्ध रखता है।इसी प्रकार सन्तजन भी प्रभुश्री रामजी के नामयश से युक्त कविता को ही प्रिय मानते हैं भले ही वह कविता किसी निम्न जाति के अथवा चांडाल द्वारा रचित क्यों न हो।आदि कवि महर्षि बाल्मीकिजी,सन्त रविदासजी, कबीर, रहीम आदि इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं।कवितावली में गो0जी ने राम नाम की महिमा का गान एक पद में निम्नवत किया है---
राम नाम मातु पितु स्वामि समरथ हितु,
आस राम नाम की,भरोसो रामनाम को।
प्रेम रामनाम ही सों, नेम रामनाम ही को,
जानौं नाम मरम पद दाहिनो न बाम को।।
स्वारथ सकल परमारथ को रामनाम,
रामनाम हीन तुलसी न काहू काम को।
राम की सपथ सरबस मेरे रामनाम,
कामधेनु कामतरु मोसे छीन छाम को।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


कवि हलधर जसवीर

कविता - कई पीढ़ियों की गाथाएँ 
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मेरे अंतर मन में रहती ,कई पीढ़ियों की गाथाएँ !
लहू शिराओं में बहती हैं , महासमर की युद्ध कथाएँ !!


पुरखों का ये गाँव बसा है इंद्रप्रस्थ यमुना के तट पर !
नस्लों का परिणाम फसा है आज हस्तिनापुर के अंदर !
खेल जुए का अब भी जारी ,चीर हरण होता द्रोपद का !
अंधे युव राजों के नीचे होती अब भी मूक सभाएं !
मेरे अंतर मन  में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!1 


बोद्ध गया का परिसर देखा वैशाली के शिलालेख भी !
कौशांबी की लाट देखकर जाना पुरखों का विवेक भी !
गौतम देश देश में घूंमे दुनियाँ ने उनके पग चूमे !
अपना राष्ट्र मलीन हो गया काम न आयी मर्यादाएं !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!2


पांडव स्वर्ग सिंधार गए हैं गद्दी पर बैठे दुर्योधन !
राजनीति के गलियारों से लूट रहे हैं मनमाना धन !
विदुर नीति भी गौण हो गयी ,माधव गीता ज्ञान खो गया !
कलयुग के इस कोलाहल में मूक हो गयी वेद ऋचायेँ !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!3


भारत माता मांग रही है लेखा अब बीते सालों का !
किसके पास बही खाता है घाटी में सोये लालों का !
कितनी चूड़ी टूट गयी हैं कितनी सेजें रुंठ गयी हैं !
दिल्ली खोज नहीं पायी है "हलधर "अब भी सही दिशाएँ !
मेरे अंतर मन में रहती कई पीढ़ियों की गाथाएँ !!4


                हलधर -9897346173


अतुल मिश्र अमेठी

      [महिमा] 


करत- दरश ईश की,
मन को आया ख्याल।
एक पुष्प पूरन करत,
क्या प्रभु की हर आस।।


जो फूल चढावन हम गये,
भौंरे किये हैं रस-पान।
क्या सोच प्रभु स्वीकार है,
नहिं कोई संवाद।।


प्रभु महिमा या माया कोई, 
समझ सके न कोय।
सब जन हित के लिए,
प्रभु ने रचा है ये ढोंग।।


नहिं तो सोचिए आप - जन,
जिसने किया हो जीवन दान।
वो करेगा क्या बाद में,
तेरे अर्थ का पान।।


........ ATUL MISHRA............


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी

...........छोड़कर नहीं जाया कीजिए............


छोड़कर  इस  तरह,कहीं  नहीं जाया कीजिए।
कसम है  सनम, ख्यालों  में  आया  कीजिए।।


बेरुखी से  दिल  कहीं  हो  न  जाए  बिस्मिल ;
बहार की  फिजाएं कमाल,न जाया कीजिए।।


हम   तो   बैठे  हैं , पलक  पांवड़े  बिछा  कर ;
भीगते होठ छूकर, दिल में  समाया  कीजिए।।
 
मत जाइए कहीं धड़कते  जिगर  को छोड़कर;
जिगर  को  जिगर  के  करीब लाया कीजिए।।


उम्मीद  जगी  है  फसल - ए - बहार  देखकर ;
रूठकर उम्मीद पर पानी न फिराया कीजिए।।


ख़ामोश   लब   बहुत   कुछ   कह   जाते   हैं ;
लब  के  पैग़ाम  को दिल से लगाया कीजिए।।


दिल की प्यास ज्यों -  ज्यों  बढ़ चली"आनंद";
दिल  की  प्यास  दिल  से  मिटाया  कीजिए।।


--------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


एस के कपूर* *श्री हंस।।बरेली*

*।।।।।।।।।खुशी की  तलाश।।।।*
*।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।।।।।।*


खोज  रहा   जो  ख़ुशी  तू
बिखरी हर ओर यहाँ वहाँ।


तेरे   भीतर ही विद्यमान है
बस   वहीँ    और     कहाँ।।


मत  खोज  उसे  बहुत  दूर
सितारों   से जाकर    आगे।


मुस्करा कर तू  मिल सबको
मिलेगा मुस्कराता ये   जहाँ।।


*रचयिता।।।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।।।*
मोब   9897071046  ।।।।।
8218685464  ।।।।।।।।।।।


एस के कपूर* *श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*

*विविध मुक्तक।।।।।।*


सोच विचार
योजना से पहले
सही आधार


शिकवा गिला
भूल   बातें   पुरानी
दिलों को मिला


लगाते आग
करते      अपराध
खुद भी खाक


जीवन जंग
हर पल  नया  है
जीवन अंग


ये जी हजूरी
बदल  गया वक्त
अब जरूरी


सबका किस्सा
एक    बात  जरूरी
निभायो हिस्सा


दिल न लगे
जब प्यार है जगे
कुछ न तके


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।बरेली*
मोबाइल 9897071046
             8218685464


एस के कपूर* *श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*

*विविध मुक्तक।।।।।।।।*


यह मुस्कान
जीत सकते हम
पूरा जहान


अमन  चैन
पहली  जरूरत
दिन ओ रैन


जैसा है देश
अलग  अलग  है
वहाँ का भेष



प्रभु चरण
सबहीं कष्ट मिटें
प्रभु शरण



खंडित न हो
ये विश्वास कभी भी
जुड़े नहीं वो



स्वार्थी न बनो
आशा दीप जलाओ
सारथी  बनो


ये परिवार
स्वप्नों की दीपमाला
बसता प्यार



हो मन चंगा
ह्रदय शीतल सा
कठौती गंगा


*रचयिता।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।।।बरेली।।*
मो      9897071046
          8218685464


एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*

*कलयुग नहीं कल का युग हो।*
*मुक्तक*


मिल कर बनायें संसार जिसमें
बस अमनों सुख हो।


बसे ऐसा भाई  चारा  कि  नहीं
कहीं  कोई  दुःख हो।।


भाषा संस्कार ओ संस्कृति सब 
कुछ   सुरक्षित    रहे।


दुनिया न    कहलाये    कलयुग
हो तो कल का युग हो।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मोबाइल        9897071046
                    8218685464


संजय जैन(मुम्बई)

*कलम का कमाल*
विधा : गीत


लिखता में आ रहा,
गीत मिलन के में।
कलम मेरी रुकती नही,
लिखने को नए गीत।
क्या क्या में लिख चुका,
मुझको ही नही पता।
और कब तक लिखना है,
ये भी नही पता।
लिखता में आ रहा.....।।


कभी लिखा श्रृंगार पर।
कभी लिखा इतिहास पर।
और कभी लिख दिया, 
 आधुनिक समाज पर।
फिर भी आया नही, 
सुधार लोगो की सोच में।।
लिखता में आ रहा...।।


लिखते लिखते थक गये, 
सोच बदलने वाली बाते।
फिर नही बदले लोगो के विचार।
इसे ज्यादा क्या कर सकता, एक रचनाकार।।
 लिखता हूँ सही बात,
अपने गीतों में...
अपने गीतों में......।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन(मुम्बई)
10/02/2020


निशा"अतुल्य" देहरादून

कान्हा 


सुन मुरली की धुन नाच रही गोपियाँ
राधा रानी बावरी है सब हुए बलहारी ।


नाच रहे सब सँग वृंदावन बिहारी
गली गली धूम मची मेरे हैं बस मुरारी।


हर गोपी साथ दिखे रास सँग राधा रानी
मुरली की सुन तान मंत्र मुग्ध नर नारी। 


सबको ही साथ दिखे नित नए भेष धरे
कृष्ण सँग राधा रानी मन सम्मोहित करे


जब छेड़े कान्हा तान मुरली की जो है जान
कान्हा कान्हा रटते निकल न जाये प्रान। 


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

प्रीति की रीति


प्रीति की रीति बड़ी अनौखी,
करके प्रीति तो जग में देखो।
प्रीति से बड़ा न मंत्र जगत में,
किसी से प्रीति निभाकर देखो।।


कान्हा संग प्रीति हुई गोपिन की,
लोक लाज सब उनने तज दीन्ही।
श्याम रंग में वह ऐसी रंग गई,
पति प्रियतम की परवाह न कीन्ही।।


मधुवन और कालिंदी तट पर,
प्रीति पाग में वह ऐसी पग गई।
जन्म जन्मांतर के पाप काटकर,
कृष्ण प्रीति से भवसागर तर गई।।


प्रीति पराकाष्ठा अर्जुन की भी,
त्रिभुवन के पति भूले ठुकराई।
बनकर सारथी रथ हांक रहे वे,
कुरुक्षेत्र में मद्भगवत गीता गाई।।


जहां नारद जैसे संत विशारद,
यति सती और सुक सनकादि ।
नेति नेति कह जग जीवन बीता,
प्रेम विवस हो काटी गज व्याधि।।


प्रीति की रीति बड़ी अलौकिक,
तुम भजकर तो देखो  यदुराई।
कट जायेंगे यहां सारे भव बंधन,
प्रीति की राह चलो तो मेरे भाई।।


रास रचैया श्री माधव की जय🙏🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸


सत्यप्रकाश पाण्डेय🙏🙏


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
         *"बंधन"*
"छोड़े स्मरण प्रभु राम का,
पल-पल मन तरसा हैं।
मोह-माया बंधन संग,
तन-मन फिर जकड़ा हैं।।
स्वार्थ अहंकार  में फिर,
पल-पल मन भटका हैं।
पाये सुख की छाया फिर,
सुख को मन तरसा हैं।।
विलासिता ही जीवन का,
बन गया आधार हैं।
छोड़े बंधन जीवन के,
मन करे न विचार हैं।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः           सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          10-02-2020


राजेंद्र रायपुरी

😌😌    दोहे राजेंद्र के    😌😌


घोड़े  तरसें  घास  को, गदहे  खाएँ  खीर।
देख व्यवस्था आज की,हिय उठती है पीर।


कुत्ते  बोटी खा रहे, गाय  तरसती  घास।
सच्चाई है आज की, मत समझो परिहास।


लम्पट की ही पूछ है, ज्ञानी   होय न पूछ ।
लम्पट  की  झोली भरी, ज्ञानी  बैठा  छूँछ।


शेर नहीं राजा बने, हो  सियार  का  राज।
कोशिश सारे कर रहे, देखो  लम्पट आज।


                  (राजेंद्र रायपुरी)


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