लग रहे ख्वाब सभी तबसे ही ख़ारों की तरह।
हो गए जबसे तुम्हीं गुम हो सराबों की तरह।
***
तुम रहो अपने महल अपने ही चौबारों में।
अपने ही घर में हम भी रहें नबाबों की तरह।
***
इक नज़र देख लिया करना झरोखों से तुम।
शर्म से गाल खिलेंगे ये गुलाबों की तरह।
***
जब उठा दिल में सवालों का समन्दर कोई।
सामने आईं तभी तुम तो जबाबों की तरह।
***
हर्फ दर हर्फ तुझे पढ़ती रहूँ हर पल मैं।
चेहरा तेरा लगा मुझको किताबों की तरह।
***
सुनीता असीम
१७/२/२०२०
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
सुनीता असीम
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नयी दिल्ली
स्वतंत्र रचना सं. २६८
दिनांक: १७.०२.२०२०
वार: सोमवार
विधा:दोहा
छन्द: मात्रिक
शीर्षक: तड़प रही प्रियतम मिलन
नव रंगों से सजा , आया फागुन मास।
इतराती रति रागिनी , इठलाती मृदुभास ।।१।।
जुगनू बन निशि साजना , आंख मिचौली रास।
तड़प रही प्रियतम मिलन , वासन्ती अभिलाष।।२।।
फूलों से कुसमित चमन , भंवर मत्त मधुपान।
रंगीली तितली प्रिये , मिलन प्रीत अरमान।।३।।
चन्द्रमुखी अस्मित अधर , पैनी कजरी नैन।
वासन्ती रति रागिनी , प्रीत विरह कहं चैन।।४।।
मना रही पिक गान से ,मधुरिम अलि संगीत।
धवल ओस नैनाश्रु से , रच सजनी निशि प्रीत।।५।।
मन विकार प्रिय राग सब , मिटे रंग मुख मेल।
फागुन रस मन मधुरिमा , प्रेम सरित् अठखेल।।६।।
महक रहे तरुवर रसाल , कुसुमित मुकुल पराग।
बनी अधीरा प्रियतमा , मिलन सजन अनुराग।।७।।
शीतल मन्द समीर नित , जाग्रत रति मन भाव।
विहंसि चांद लखि चांदनी ,मदन बिद्ध चित घाव।।८।।
नीलाम्बर छायी निशा , सज सोलह शृंगार।
शरमाती लखि चांदनी , सजन चन्द्र अभिसार।।९।।
मन्द मन्द मुस्कान से ,मना रहा निशि चन्द।
देख रागिनी चांदनी , हर्षित मन मकरन्द।।१०।।
जले होलिका विरह की , खिल सरोज मन नेह।
सुरभि मनोहर माधुरी , प्रीत गीत हर गेह।।११।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
एक फागुन का अवधी छंद...
बरसति रंग बड़ा, भीगति हैं संग बड़ा,
आऔ है फागुन बहे, पछुआ सुहानी है।
गावति बसंत गीत, सबको है मनमीत,
आइने को देख देखो, गोरी हरसानी है।
निज रुप निहारिके, घूँघट मुख डारिके,
चलति है ऐसे जैसे, पति सो रिसानी हैं।
आँख कारी रेख खीच, कोमल अधर बीच,
रोज चुपके से दबी, मुस्कान मुस्कानी है।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
कैलाश , दुबे ,
जो मेरा कातिल है ,
बो मेरे पास रहता है ,
कहता नहीं मुझसे कुछ ,
पर आसपास कहता है ,
बड़े जतन से पाया है मैंने उसे ,
अब मेरे पास हमेशा रहता है ,
कैलाश , दुबे ,
सत्यप्रकाश पाण्डेय
खुद को देखता हूँ आईने मैं,
तुम्हारी सूरत नजर आती है।
यह मेरा भ्रम है या हकीकत,
कि तेरी मूरत नजर आती है।।
वह क़ातिलाना अंदाज तेरा,
और ये घूर कर देखना मुझे।
मैं समा जाऊँगा आगोश में,
फिर बुरा क्यों लगता तूझे।।
तितली नहीं भौरे है हम तो,
आदी है हुश्न के रसपान के।
पियेंगे अधरों से जाम प्रिय,
हे प्रियतमा यौवन खान के।।
अनुभूति तुम मेरे ह्रदय की,
अजनबी नहीं तुम्हारे लिए।
क्यों अनजानी सी हो जाती,
जब जीवन ही तुम्हारे लिए।।
कष्ट होता तुम्हें आह हमारी,
क्यों दर्द का अहसास नहीं।
हमदर्द बने क्यों न सत्य की,
क्यों करती तू विश्वास नहीं।।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
निशा"अतुल्य"
निशा"अतुल्य"
देहरादून
पहचान बदल जाती है
दिनाँक 17/ 2/ 2020
वक़्त बदलता है जब
इंसान चला जाता है
कहलाता था जो शरीर
वो मिट्टी कहलाता है।
मिलकर पंचभूत में
पहचान बदल जाती है।
कल जो चलता था शरीर
तस्वीर बदल जाती है।
होता था जो खुश
पहन गले में हार
देख तस्वीर पर उसे
ज़िन्दगी आँख चुराती है।
अज्जब गज्जब सी रवायतें है
कहाँ कुछ कहती सुनती है
निकलती सांस शरीर से
नाता सबसे तोड़ जाती है।
तिनका-तिनका जोड़
बनाया था एक जहां
एक पल न लगा उसे
छोड़ जाने कहाँ चली जाती है।
समय गुज़रता है जब जैसे
सूरते हालात बदल जाती है
बनकर मिट्टी शरीर की
पहचान बदल जाती है ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
सुनीता असीम
फेसबुक की महिमा न्यारी।
प्यार मुहब्बत सबपे तारी।
***
अपनी देखें मुंह बनाए।
गैर की बीबी लगती प्यारी।
***
घर गिरस्थी बोझ लगे अब।
सूख रही घर की फुलवारी।
***
बढ़ती उम्र में खेल रचाया।
बुड्ढों की बुड्ढी से .. यारी।
***
इधर से पकड़ा बीबी ने जब।
उधर से भी पड़ती है गारी।
***
परनारी का शौहर पकड़े।
मैसेंजर पे बात हो सारी।
***
दूजी दिल जितना बहला दे।
अन्त में अपनी लगती प्यारी।
***
इस यारी ने घर हैं तोड़े।
गलती है यारो ये भारी।
***
ये समस्या खूब बढ़ी है।
इक फतवा इस पर हो जारी।
****
सुनीता असीम
१७/२/२०२०
संजय जैन (मुम्बई
*श्रोता बन गया आशिक*
विधा : कविता
मिले हम अपनी कविता,
गीतों के माध्यम तुमसे।
परन्तु ये तो कुछ,
और ही हो गया।
पढ़ते पढ़ते मेरी गीतों के, तुम प्रसन्नसक बन गये।
और दिल ही दिल में,
हमें चहाने लगे।
और अपने कमेंटो से,
हमें लोभाने लगे।।
दिल से कहूँ तो मुझे भी,
पता ही नही चला इसका।
और हम भी तेरे कमेंटों, के दीवाने हो गए।
अब तो तेरा मेरा हाल,
कुछ इस तरह का है।
जो एकदूसरे को देखे बिना।
हम दोनों अब रह सकते नहीं।।
कितना दिल से तुमने हमें
पढ़ा।
ये तेरे चेहरे से समझ आता है।
दिल की गैहराइयों से देखे तो।
तुम में हमें मोहब्बत नजर आती है।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
17/02/2019
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली
*आह और वाह।।।।।।।।।।।*
*।।।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*
गति ओ प्रवाह का दूसरा
नाम ही तो जीवन है।
सहयोग ओ परवाह का दूसरा
नाम ही तो जीवन है।।
कर्म की धारा और विवेक की
पतवार मिल कर चले।
आह और वाह का दूसरा
नाम ही तो जीवन है।।
*रचयिता।।।।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।।।।।
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*
*कुछ अच्छे अहसास तुम बांटो*
*।।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।*
नफरत का विष नहीं,
आस तुम बांटों।
बन कर के एक दिया,
प्रकाश तुम बांटों।।
ये जो जीवन मिला तुमको,
कुछ अर्थ हैं इसके।
पूरी हो किसी की मुराद वो,
विश्वास तुम बांटों।।
*रचयिता।।।।एस के कपूर*
*श्री हंस।।।।।बरेली।।।।।।*
मोब नॉ 9897071046
8218685464।।।।।।।।
एस के कपूर श्री हंस* *बरेली*
*प्रभु की अदालत में हर कर्ज़*
*चुकाना पड़ता है।मुक्तक।।।*
विधाता की अदालत में
हर दर्द सुनाना पड़ता है।
निभाये नहीं जो फ़र्ज़
उनको बताना पड़ता है।।
बिन कागज़ कलम ईश्वर
रखता हर कर्म का हिसाब।
ऊपर उसके दरबार में तुझे
हर कर्ज़ चुकाना पड़ता है।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मोबाईल
9897071046
8218685464
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*"आधार"*
"सत्य-पथ पर चलकर ही यहाँ,
संग मन भरता विश्वास हैं।
मिल साथी अपनो को जग में,
बाकी यही पल पल आस हैं।।
प्रेम-सेवा-त्याग में ही फिर,
भरा इस जीवन का सार हैं।
पाते समरसता सुख दु:ख में,
यही तो जीवन आधार है।।
भटकन ही भटकन जग में जब,
बढ़ता स्वार्थ अंहकार हैं।असीम सुख की अभिलाषा में,
मिलता दु:खो का भण्डार हैं।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta.abliq.in
ःःःःःःःःःःःःःःःःःःः 17-02-2020
राजेंद्र रायपुरी
🤣 नेताओं की नई कहानी 🤣
नेताओं की नई कहानी।
सुन लो यारो कहूँ ज़ुबानी।
ये वो काले नाग न जिनका,
काटे कभी माँगता पानी।
वादों के उस्ताद यही हैं।
जन-धन से आबाद यही हैं।
इनका कहा न मानो यदि तुम,
करते फिर बर्बाद यही हैं।
गिरगिट जैसा रंग बदलते।
हर साँचे में ये हैं ढलते।
पल-पल में देखे हैं हमने,
डंडा-झंडा सभी बदलते।
कहते हम करते जनसेवा।
जग ज़ाहिर खाते हैं मेवा।
सुनें तभी ये बात किसी की,
मिल जाए जब इन्हें कलेवा।
"तुम"से हटकर"आप"कहें ये।
खा लो आलू-चाप कहें ये।
आए जब चुनाव तब भैया,
गदहे को भी बाप कहें ये।
बचकर रहना इनसे भाई।
नेता ना ये सभी कसाई।
झूठ न मानो बातें मेरी,
सच कहता हूँ राम दुहाई।
।।राजेंद्र रायपुरी।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नयी दिल्ली
स्वतंत्र रचना सं. २६८
दिनांक: १६.०२.२०२०
वार: रविवार
विधा: दोहा
छन्द: मात्रिक
शीर्षक: 🌦️कण कण से बनता महल🌅
नस नस में बहता रुधिर , देता जीवन दान।
कण कण से बनता महल , जन जन भारत शान।।१।।
दस्यु कहते मरा मरा , राम नाम सत् नाम।
वही आदिगुरु वाल्मीकि , रामायण सुखधाम।।२।।
सत्य कर्म सह न्याय मिल , त्याग शील परमार्थ।
उन्नति होता जन वतन , मिल अक्षर शब्दार्थ।।३।।
सुख दुख से जीवन भरा , खुशी गमों का सार।
मूल्यवान हर वक्त है , चले वक्त संसार।।४।।
धर्म अर्थ भाषा विविध , नीति प्रीति संगीत।
शील धीर गंभीर सत् , मिल जीवन नवनीत।।५।।
खिले काव्य की मधुरिमा , रीति गुणालंकार।
नवरस। गुण शब्दार्थ। नित , कविता का आधार।।६।।
काम क्रोध मद लोभ से , भटक रहा इन्सान।
चलें झूठ छल कपट पथ , हिंसक जग शैतान।।७।।
जन जन मन बनता वतन , अलग अलग मति एक।
खिले प्रकृति पादप कुसुम , हो निकुंज कृति नेक।।८।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली
कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी लखनऊ
मेंहदी( मंदाक्रांता छंद)
222 2111112 212 2122
गोरे हाथों पर पिय लिखा, मेंहदीं से सजाई |
गोरी जोहे प्रियतम कि राहें ,अभी है जुदाई |
काहे को साजन भुल गये ,याद आती तिहारी |
राधा ढ़ूढे मधुबन गली, छूप जाओ बिहारी|
राधे राधे🙏🌹🌹
कुमुद श्रीवास्तव वर्मा कुमुदिनी लखनऊ
मधु शंखधर स्वतंत्र* *प्रयागराज*
*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷
*स्वाभिमान*
◆स्वाभिमान के बिन कहाँ,होता है सम्मान।
मानव होता पशु निरा,जो सहता अपमान।
स्वाभिमान जो निज धरे, देशप्रेम के नाम,
सदा सुखद अहसास से, बने देश की शान।।
◆कठिन घड़ी विश्वास से,जाए निः संदेह।
सुखद धरा वह ही करे,छोड़ चले जब देह।
देश प्रेम के भाव से, होता है अभिमान,
स्वाभिमान ऐसे बसे,जो भर दे नव नेह।।
◆माया बंधन है सुखद, कष्ट मूल वैराग।
भटक रहा जो मोह में, पाये वह अनुराग।
स्वाभिमान जीवन छले,गर हो झूठी आस,
सत्य भाव जिस मन बसे, गाता वो *मधु* राग।।
*मधु शंखधर स्वतंत्र*
*प्रयागराज*
प्रिया सिंह मिष्ठी लखनऊ
इस देश का हर शहर गुलाबी है
बचपन का हर पहर गुलाबी है
आंचल माँ का है तो क्या बात
आंचल पर हर दहर गुलाबी है
बहते नदियों का क्या जिक्र करूँ
मेरे जमीं का हर नहर गुलाबी है
संगीत सब के नब्स में शूमार है
यहाँ भाषा में भी बहर गुलाबी है
हमें शान अपनी जान तिरंगे पर है...
आसमां में ध्वज का फहर गुलाबी है
Priya singh
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नयी दिल्ली
स्वतंत्र रचना
दिनांक: १६.०२.२०२०
वार: रविवार
विधा: कविता
शीर्षक: 🌹🙏दी श्रद्धांजलि मां भारती🙏🌹
साश्रु राष्ट्र है कृतज्ञ,
शहीद धीर वीर साहसी,
दी कुर्बानियां जो देश पर,
दी श्रद्धांजलि मां भारती।
फिर दंगाई उफन रहा ,
देश द्रोह कर रहा,
सीमान्त जांबाज वीर पे,
घृणित तोहमतें लगा रहा।
गद्दार है जो वतन
तान फन इन्द्रजाल,
पुलवामा शहीद पे
प्रश्न फिर उठा रहा।
तोड़ने तुला वतन,
झूठ लूट छल यतन,
वोटबैंक राजनीति,
आतंक साथ दे रहा।
भारतीय कुपूत जो
नापाक राग गा रहा,
मस्त पस्त पाक फिर,
गीदड़ भभकियां दे रहा।
लांघी मर्यादाएं सभी ,
देश धर्म सम्मान आन,
स्वार्थ सिद्धि संलिप्त नित
बदजुबां पाक साथ दहशती।
सिसक रही प्रजा यहां ,
शहीद जो वतन हुए ,
आन बान शान जो ,
उन्हीं पर वे हंस रहे।
विलख रही मां भारती ,
गद्दार निज कपूत पर,
कोसती है कोख को,
क्यूं जन्मा खल पातकी।
है शून्यता संवेदना ,
राष्ट्र विरुद्ध भावना ,
अमन चैन देश का,
लूट सैनिकों को कोसता।
तन मन धन जीवन वतन
जो जवान अर्पित किया,
पर,देशद्रोही दुश्मन वतन,
उस वीरता को कोसता।
नित विरोध देश का ,
कर रहे खल बेहया,
खा रहे जिस देश का,
उसे ही दे रहें हैं गालियां।
लानत नफ़रत हरकतें ,
वतन विरुद्ध साजीशें ,
नापाक साथ नित खड़े ,
नेता कुछेक स्वार्थ सेंकते।
जन्मा ,संवरा जीता वतन,
पर नहीं राष्ट्र सम्मान है,
देश द्रोह जलाता वतन,
खल मिला पाक शैतान है।
आशंका हर बात में ,
है दिया दोष सरकार,
हर शहीद सीमा वतन,
नित अपमान करे गद्दार।
पुलवामा के बलिदानियों ,
लिखा स्वर्णाक्षर में नाम,
ऋणी आपके जन वतन,
शत् श्रद्धा पुष्प प्रणाम।।
नत निकुंज कवितावली ,
देती साश्रु नैन सम्मान,
हे सपूत तुम अमर रहो,
युग युग रहो तिरंगा शान।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नयी दिल्ली
निधि मद्धेशिया कानपुर
वेब पेज पर प्रकाशनार्थ
घर-आँगन सूना कर विदा हुई बिटियाँ
न हटाओ घोंसला कहाँ जाएँगी चिरिया
नइहर-पीहर के लिए करेंगी प्रार्थना
बदली जलवायु, दर बदला, बदली गुड़िया।
5:35
16/2/2020
निधि मद्धेशिया
कानपुर
उत्तर प्रदेश
भारत
सुनील चौरसिया 'सावन' प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश।
कवि सुनील चौरसिया 'सावन'
प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश।
ग्राम -अमवा बाजार, पोस्ट- रामकोला, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश।
कविता-ताजमहल
नल के जल को भी गंगाजल समझिए।
भूलकर भी न दुश्मन को निर्बल समझिए।।
जो हो गया सो हो गया, मत रोइए,
मिले हुए हर फल को कर्मफल समझिए।।
सवालों के शूल से दिल घायल न हो,
इक सवाल को दूसरे का हल समझिए।।
'सावन' सुख से सोइए सूखे बिस्तर पर,
फटे पुराने चादर को मखमल समझिए।।
खाली है हथेली तो हवेली कहां,
उजड़े छप्पर को ताजमहल समझिए।।
सुनील चौरसिया 'सावन'
प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली अरुणाचल प्रदेश।
ग्राम -अमवा बाजार, पोस्ट- रामकोला, जिला- कुशीनगर, उत्तर प्रदेश।
90 44 97 4084
84 14015182
श्रीमती राधा चौधरी।
बहुत की चाह
++±+++++++++++++++++++
हर रास्ते पे काटे हैं बहुत ।
हर दामन पे दाग है बहुत।
हर दिल पे जख्म हैं बहुत।
हर दिल पे दर्द है बहुत।
हर दिल पे ख़ुशीया है बहुत।
हर मन में इच्छायें है बहुत।
हर लम्हों का इंतजार है बहुत।
हर किसी को यादों में जीने
की आदत है बहुत।
हर किसी को आने वाले कल
की इंतजार है बहुत।
बहुतों की आदत हो गई है बहुत।
बहुतों में समायें है बहुत ।
श्रीमती राधा चौधरी।
नूतन लाल साहू
ओम जय जगदीश हरे
नया साल या पर्व आते ही
शुरू हो जाता है
एस एम एस द्वारा
बधाई देने का सिलसिला
पता नही उसे सामने वाला
पढ़ा या नहीं पढ़ा
कई अजीबो गरीब
संदेश आए,पढ़कर चकराए
पर मोबाईल,कंपनी की जेब भरे
ओम जय जगदीश हरे
अपुन के पास
कुछ संदेश आया
एक डाक्टर मित्र ने फरमाया
नए साल में,खांसी जुकाम नहीं
कोरोना से भी बढ़कर
बीमारी आयेगा
मरीज जिये अथवा मरे
अपुन की जेब भरे
ओम जय जगदीश हरे
एक वकील साहब ने
मैसेज किया
नये साल में भाईचारा
भाड़ में जाए
मुजरिम तख्त की आड़ में आए
मुकदमा जीते चाहे हारे
नोट मिल जाए, खरे खरे
ओम जय जगदीश हरे
एक पुलिस वाले का
मैसेज आया
नये साल में चोरी हो या डकैती हो
झगड़ा हो या फसाद हो
मामला चाहे, जो भी हो
अपुन की जेब भरे
ओम जय जगदीश हरे
नया साल या पर्व आते ही
शुरू हो जाता है
एस एम एस द्वारा
बधाई देने का सिलसिला
पता नही उसे,सामने वाला
पढ़ा या नहीं पढ़ा
मोबाईल कंपनी की जेब भरे
ओम जय जगदीश हरे
नूतन लाल साहू
गंगा प्रसाद भावुक
किसानों का देश,
अरमानों का देश,
गरीबी से त्रस्त
जवानों का देश,
बेरोजगारी सुरसा
है मुह बाये,
हुक्मरानों को
कौन बताये,
सेना की भर्तियों में
जाते हैं ग़रीब,
कब कहां सेना में
जाते हैं अमीर,
कुछ अपवादों को
छोड़ दें,
किसी ने कभी देखा है,
या किसी ने सुना है,
क्या कभी किसी नेता
की औलादें गयी
सेना में,
फिर क्यों जाये ?
या क्या कभी कोई
नेता मरा है दंगों में,
ऐसा कभी नही होता,
अकाल मौत को हम
गरीब बनें हैं,
ये सब तो सुख
सुविधाओं में
सनें हैं,
दंगों की,
आतंकी हमलों की
ख़ुराक सिर्फ हम
ग़रीब बने हैं,
ये बेशर्म हमारी
लाशों पर भी
राजनीतिक रोटियां
सेंकते हैं,
यहां सेना में भर्ती
एक जुनून है,
यहां जाति धर्म
का कोई नही कानून है,
फिर भी दोगले नेता
हमारी शहादत को
जाति धर्म भाषा
क्षेत्रवाद में बांटते हैं,
अपनी सत्ता के लिए
हमें जलती आग में
झोंकते हैं,
ये सदियों से चला
आरहा है,
अभी और कब तक
चलेगा,
हमारा देश आखिर
कब तक पुलवामा
जैसी घटनाओं में
जलेगा,
आओ अपने बीच
छिपे गद्दारों दलालों
का पर्दाफाश करें,
जो पुलवामा
की पवित्र आहुति में
फायदे का जिक्र करे
उन्हें तिरस्कृत करें,
मानवता का
साथ दें,
देश हित का
शिलान्यास
करें।।।।
भावुक
हलधर जसवीर
कविता - झरोखा
---------------------
लिख रहा आज मैं कविता ,सपने की एक कहानी ।
भारत माता रो रो कर ,आंखों भर लायी पानी ।।
भारत माता ने पूछा ,खोया है वैभव सारा ।
गलियों में है चिंगारी,सड़कों पर है अंगारा ।।
मैं बोला मैया तेरा , वैभव अवश्य आएगा ।
मतलब कुनबे का जग को ,भारत ही समझाएगा ।।
मैया मेरा क्या मैं तो ,निज देश चला जाऊंगा ।
जिंदा छंदों के द्वारा ,मैं देश राग गाऊंगा ।।
कविताएं मेरी तब भी ,जग का आव्हान करेंगी ।
गंगा की उठती लहरें ,धरती में रंग भरेंगी ।।
मैं स्वयं चिता में जलकर ,नव ज्योति जला जाऊंगा ।
सपनो की इस धरती पर ,जाने फिर कब आऊंगा ।।
आयेंगे अलि कुंजन से ,छंदों पर मंडराने को ।
पर मैं न रहूंगा जग में ,मां तेरे गुण गाने को ।।
तब कुशल क्षेम को मेरी ,नभ से राही आयेंगे ।
कविता मेरी मंचों पर ,सजधज कर वो गाएंगे ।।
कविता जो भी गाएगा ,छंदों का रूप बदल कर ।
सपने में आ जाएंगे ,उसको समझाने दिनकर।।
मैंने भी तो गाया है ,बीते युग के गायन को ।
मुगलों के राजतिलक को ,अंग्रेजी वातायन को ।।
गौतम के कर्म देखकर ,मैं मन ही मन अकुलाता ।
तब सत्य अहिंसा मग में ,डूबी थी भारत माता ।।
घावों पर नमक लगाने ,फिर एक पुजारी आया ।
बापू कहकर जनता ने ,उसको भी गले लगाया ।।
बटबारे में मां तुझको ,कुछ ऐसे घाव मिले थे।
लाशों से धरा पटी थी ,पत्थर रो रो पिघले थे ।।
सब छोड़ पुरानी बातें ,हमने यह देश संवारा ।
चोरी से घर घुस बैठा ,अलगाव वाद का नारा ।।
देखा दिल्ली में जाकर ,यमुना कैसे रोती है ।
यम की बहना कलयुग में ,कैसे मैला ढोती है ।।
गंगा की करुण कहानी ,कैसे जग को बतलाऊं ।
प्रदुषित गंगा जल को ,देवों को पिला न पाऊं ।।
आतंकवाद ने घेरा ,धरती का वैभव सारा ।
इस्लाम खोज नहिं पाया ,इन दुष्टों से छुटकारा ।।
रोता घायल मन मेरा ,कैसे अब धीर बधाऊं ।
शमशान बनी है धरती ,कैसे यह स्वर्ग बनाऊं ।।
धरती का रूप देखकर ,रोते है नभ के तारे ।
विस्फोट रोज होते है ,उठते खूनी फब्बारे ।।
मंदिर मस्जिद से उठती ,कौमी मजहब दीवारें ।
यह देख देवता रोते ,रोती सुनसान मजारें ।।
रोजाना नारे लगते ,मजहब के नाम सदन में ।
सुनकर के क्रोध जागता ,लगती है आग बदन में ।।
छोटी बातों को लेकर ,तूफान खड़ा हो जाता ।
सड़कों पर जलती गाड़ी ,ऐलान बड़ा हो जाता ।।
सपने में दिनकर बोले ,छोड़ो यह राग पुराना ।
मैंने भी समझाया था , मजहब है पागलखाना ।।
जीवन का मकसद भाई ,कुछ कर के ही जाना है ।
दो घर है इसके जग में,कुछ खोना या पाना है ।।
मदिरा छंदों की ज्यादा ,छोटा सा घट का प्याला ।
इसमें क्या आ पाएगी ,यह व्योम गंग की हाला ।।
इतिहास पूछता मुझसे ,अब मेरी क्या है गलती ।
वो वर्तमान की ज्वाला ,मेरे घर में आ जलती ।।
धरती पर आकर मैंने ,जीवन का सच यह देखा ।
राजे महराजों से भी , नहिं मिटा भाग्य का लेखा ।।
हर मानस का धरती पर ,जीवन होना नश्वर है ।
जो काम भले कर जाए ,उसका ही नाम अमर है ।।
दिनकर बोले अब "हलधर" ,मेरे पीछे मत भागो ।
अपनी कविता में गाओ , जागो रे भारत जागो ।।
हलधर - 9897346173
भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
*" ज्योति "* (दोहे)
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¶होता सूर्य-प्रकाश से, जगमग जगत उजास।
परम-प्रभा पत-पुंज से, प्रगटे सृष्टि-सुहास।।१।।
¶दिव्य-चित्त की ज्योति से, उन्नत जीवन-पंथ।
होता कर्म महान है, बन जाता सद्ग्रंथ।।२।।
¶हरपल रखना दीप्त ही, ज्ञान-ज्योति भरपूर।
घन-तम तब अज्ञान का, मन से होगा दूर।।३।।
¶दीपक बन जा धैर्य का, भरकर पावन-स्नेह।
ज्योति जले सद्भाव की, मिटे तमस मन-गेह।।४।।
¶आडंबर से लोक में, अहंकार का राज।
सज्जन सुकर्म-ज्योति से, द्योतित करे समाज।।५।।
¶सतत् प्रभासित जो रखे, कर्म-ज्योति-प्रतिमान।
दिव्य-चक्षु भव-भान से, मानव बने महान।।६।।
¶परमारथ के पंथ पर, पनपे पुण्य-प्रकाश।
ज्योतिर्मय धरती रहे, कलुष कटे घन-पाश।।७।।
¶ज्योति मिले जब ज्योति से, ज्योति-परम कहलाय।
जग-जीवन जगमग करे, धरा स्वर्ग बन जाय।।८।।
¶ज्योतिर्मय हर प्राण हो, ज्योतिर्मय हो कर्म।
ज्योति-परम हरपल जले, रहे यही बस धर्म।।९।।
¶प्रेम-प्रकाश प्रदीप्त कर, करना जग-आलोक।
'नायक' सार्थक कर्म हो, मन में रहे न शोक।।१०।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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