*प्रभात वंदन*
नव दीप जले हर मन में,
अब तो भोर हुई हुआ उजियारा।
लगे विहग धरा में चहकने,
रवि किरणों से जग सजे सारा।।
बहे पावन सरिता का जल,
हिमशिखरों पर लालिमा छायी।
बनकर ओस की बूँदें छोटी,
जल मोती यह मन को भायी ।।
भानू की अब चमक देखकर,
छिप गये तारे हुआ उजियारा।
सजाया है जग निर्माता ने,
नभ जल थल सुंदर प्यारा।।
......भुवन बिष्ट
रानीखेत( उत्तराखंड)
"काव्य रंगोली परिवार से देश-विदेश के कलमकार जुड़े हुए हैं जो अपनी स्वयं की लिखी हुई रचनाओं में कविता/कहानी/दोहा/छन्द आदि को व्हाट्स ऐप और अन्य सोशल साइट्स के माध्यम से प्रकाशन हेतु प्रेषित करते हैं। उन कलमकारों के द्वारा भेजी गयी रचनाएं काव्य रंगोली के पोर्टल/वेब पेज पर प्रकाशित की जाती हैं उससे सम्बन्धित किसी भी प्रकार का कोई विवाद होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी उस कलमकार की होगी। जिससे काव्य रंगोली परिवार/एडमिन का किसी भी प्रकार से कोई लेना-देना नहीं है न कभी होगा।" सादर धन्यवाद।
भुवन बिष्ट रानीखेत( उत्तराखंड
वैष्णवी पारसे छिंदवाड़ा
आँखो में भर आया पानी
बेटी जीवन की यही कहानी
रो रोके हो गया बुरा हाल
बाबुल की बिटियाँ चली ससुराल
नन्ही से चिड़ियाँ चली ससुराल
कल तक तो खेली इस आँगन में
तितली बन मंडराई उपवन में
पीछे छुट गई है बगिया
मेरी सारी सहेली सखियाँ
टुकटुक मैं जिनको रही निहार ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
छोटी छोटी बातों पे रुठना मनाना
बाबा तेरे संग में वो हँसना हँसाना
माँ की वो मीठी लोरी
संग में तेरे खेली होरी
यादों का उठा हैं भूचाल ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
जिस आंचल में पली वो हो रहा पराया
छूट रहा सर से अपनो का साया
कैसी आई ये घडि़या
पल भर में बीती सदियां
दिल में घिरे कितने सवाल ।
बाबुल की बिटिया चली ससुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
वादा है मै सबका मान बढाऊंगी
रिश्तो को सारे मन से निभाऊंगी।
तेरी ही सिखाई बाते
याद रखूंगी दिन राते
रखूंगी सबका दिल से ख्याल ।
बाबुल की बिटिया चली सुसुराल ।
नन्ही सी चिड़ियाँ चली ससुराल ।
वैष्णवी पारसे
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
तमाम इल्म जानता हैं फ़क़त खूब अदीब है वो।
रहे चाहें दूर मुझसे मगर बहुत करीब है वो।
बदौलत उसके सभी सुख मयस्सर अब भी हमें हैं।
खुदा का हैं नूर रुख पर मिरा रोज नसीब है वो।
अवनीश त्रिवेदी "अभय"
कैलाश , दुबे होशंगाबाद
यूं चिराग जलते रहे रात भर ,
हम उजाले कै तरसते रहे रात भर
यूं ही सहमे बैठे रहे हम रात भर ,
जब हवा का झोंका आता वहां ,
डरते रहे और सहमते रहे रात भर ,
कोई न अपना था वहां पर ,
बैठे रहे हम उजाले को तरसते रात भर ,
कैलाश , दुबे
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक स्वरचित नई दिल्ली
दोहा: “🌦️पत्थर की बरसात"🌦️
दंगाई चारों तरफ़ , मचा हुआ कोहराम।
शुभ प्रभात क्या नमन हो,चहुंमुख रोड विराम।।१।।
पत्थर की बरसात में , घायल हैं जनतंत्र।
लाचारी सरकार में , वोटबैंक षड्यंत्र।।२।।
जला रहे जन सम्पदा , सार्वजनिक संसाध।
निर्भय दावानल बने , दंगाई निर्बाध।।३।।
बची जान कल किसी तरह , फंस दंगाई फांस।
अमन चमन वीरान सा , रुकी हुई थी श्वांस।।४।।
मत कोसों रक्षक वतन , पोषो मत गद्दार।
पा सुकून हो सो रहे , गाली देते यार।।५।।
पूछो हम पे क्या बीतती , बना आज मज़बूर।
दंगा से घायल पथी , हूं घर से मैं दूर।।६।।
तोड़ो फोड़ व आगजनी , सौदागर बन मौत।
दहशत का आलम कुटिल,साजीशें बन सौत।।७।।
बेशर्मी बन बेहया , नेताओं की फ़ौज।
भड़काते उन्माद को , घर में सोतेे मौज़।।८।।
शरणागत पर गेह में , बना आज मैं मीत।
शैतानी अवरोध से , पड़ दहशत भयभीत।।९।।
सरकारी सब महकमा , पड़ा सोच में आज।
बदनामी दोनों तरफ़ , गिरे मौन बन गाज़।।१०।।
पता नहीं कबतक जले , मानवता सम्मान।
कवि निकुंज विरुदावली ,गाएं समरस गान।।११।।
कुर्बानी जनता वतन , चढ़ा भेंट सरताज।
रतन लाल तज जिंदगी, बचा देश का लाज़।।१२।।
पत्थरबाजी बारिशें , भारत लहूलूहान।
समरसता प्रीति दफ़न , मुस्काता शैतान।।१३।।
मौतें होती एकतरफ़ , सजे चौकड़ी मंच।
ओछी चर्चा पटल पर , करें न्याय सरपंच।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक स्वरचित
नई दिल्ली
गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
"अग्निस्तान"
""""""""""""""""""
कभी कश्मीर तो कभी गुजरात जला
कभी असम तो कभी केरल जला
कभी राजस्थान तो कभी महाराष्ट्र जला
कल यू.पी. तो आज दिल्ली जला
ये कैसी आग है.....?
कभी अराजकता के नाम से...
तो कभी सियासत के नाम से जला
डर है मुझे इस बात की.....
कही पूरे हिंदुस्तान ना जल जाए
शांति का सन्देस देने वाला...
कही अग्निस्तान में ना बदल जाए ।।
गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®
श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी
भोजपुरी पारंपरिक होली गीत 5 -स्वंबर रचावे जनक जी
सिया दिहली मलवा राम गले डाली ,
खूब भावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
बड़े बड़े राजा जुटले जनकपुर |
ज़ोर लगाई न तोड़ले धनुषवा जनकपुर |
रावण भी हारी सिर नवावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
मुनि विश्वामित्र संगवा राम-
लक्षमन मिथिला मे अइले |
फुलवा लोढ़त भेंट सिया
राम मिथिला मे भईले |
दोनों नैना से नैना लड़ावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
जनकनंदनी सिया शिव पारवती के पूजे |
बगिया से चुनी चुनी फूल मलवा मे गूँथे |
मिलिहे राम वर उनके हाथ
जोड़ी मनावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
गुरु के चरणीया मे सिरवा झुकाई |
शिव ध्यान करी राम लिहले धनुषवा उठाई |
तोडी धनुषवा राम शिव गोहरावे जनकपुर |
स्वंबर रचावे जनक जी |
अइले फगुनवा खेल होली राम अयोध्या |
रंग अबीर लेई खेले भरत तोडी तपस्या |
लखन बजरंगी संगी होलिया खेलावे जनकपुर |
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी
मोब।/व्हात्सप्प्स -9955509286
देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
...........जाने क्या चुपके से...........
जाने क्या चुपके से आपने कह दिया।
आपने कह दिया वो मैंने सह लिया।।
आपने मुझे तो दिल से निकाल फेंका;
एक कोने में आपके मैंने रह लिया।।
बेतरतीब सी हो गई थी जिन्दगी मेरी ;
किसी हाल में जिंदगी मैंने गह लिया।।
न किसी का साथ,न ही कोई भरोसा ;
जैसे बहाया वक़्त ने,मैंने बह लिया।।
दिल के मारे हम बेचारे हैं प्यारे दोस्त;
मन के अंदर गुस्से को मैंने दह लिया।
हमेशा आपसे सुलह की कोशिश में ;
आपने जो कह दिया मैंने वह किया।।
उम्मीद तो है कभी तो मिलेंगे"आनंद";
इसलिए ख्यालों को मैंने तह किया।।
----- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"
अभिलाषा देशपांडे
माँ
-दुआये
दुआये माँ की , कम नहीं होती
माँ तो माँ , खुदासे कम नहीं होती!
माँ कल खुदासे जबाबतलबी करती रही
मुश्किले क्यों मेरे बेटे कि कम नहीं होती!
एक दिन मेरा बेटा भी सिकंदर बनेगा
माँ की उम्मीदे कभी कम नहीं होती!
मेरा पहला गुनाह और माँ का वो थप्पड
सबक देनेमें माँ को शरम नहीं होती!
मेरा दावा हैं कि, दुनिया में कोई भी चीज
माँ के दिल से ज्यादा नरम नहीं होती!
स्वरचित
अभिलाषा
इन्दु झुनझुनवाला जैन बंगलौर
होरी लोकगीत
मन की बतियां ,कांसे कहूँ सखी री ।
पिया तो सुनत ,नाही कोई बतियां ।
हम तो सखी री, देखे नाही दुनिया।
पिया तो हमारे भएल परेदेसिया।
मन की बतियां -----
प्यार की भाषा अँखियाँ करे सखी,
बोले तो कैसे, बोले ऐसी बतियाँ।
मन की बतियां -----
हमरे पियाजी अंगरेजी मा बोले,
समझ परे नाही मोहे उनकी पतियाँ।
मन की बतियां -----
चाकी पिसत सारी उमर गुजारी रे,
हमसे चलत अब नाही फटफटिया।
मन की बतियां -----
पाउडर लिपिसटिक कबहुँ ना जानो,
कईसे रिझाउँ ,बनढन के सजनिया।
मन की बतियां ---'
अब तो सखी री,आँख नाही लागे,
विरहा की आग मे, जलूँ सारी रतिया।
मन की बतियां -----
होरिया के रंग में भीजे मोरा तन सखी,
प्रीत के रंग में तोहे रंग दूँ सजनवा।
मन की बतियां---------
इकबार साजन गलवा लगा ले रे,
उमर भर ना माँगे कछु और मनवा।
मन की बतियां ---
इन्दु झुनझुनवाला जैन
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
हिन्दी चित्रपटीय गीतों में छंद
साहित्य, किसी वाङमय की समग्र सामग्री का नाम है। इस नश्वर संसार में जितना भी साहित्य मिलता है उनमें सर्वाधिक प्राचीनतम ’ऋग्वेद’ है और ऋग्वेद को छंदोबद्ध रूप में ही रचा गया है है। यह इस बात का अकाट्य प्रमाण है कि उस समय भी कला व विशेष कथन हेतु छंदो का प्रयोग होता था। छंद को यदि पद्य रचना का मापदंड कहें तो किसी प्रकार की अतिशयोक्ति न होगी। एक बात और है कि बिना कठिन साधना के कविता में छंद योजना को कदापि साकार नहीं किया जा सकता।
*वैदिकच्छन्दसां प्रयोजनमाह आचार्यो वटः –*
*स्वर्यं यशस्यमायुष्यं पुण्यं वृध्दिकरं शुभम् ।*
*कीर्तिमृग्यं यशस्यञ्च छन्दसां ज्ञानमुच्यते ॥ इति*
हमारी हिन्दी फिल्मों के अत्यंत कर्णप्रिय व मधुर गीत बरबस ही हम सबका मन मोह लेते हैं, एक प्रश्न उठता है कि वस्तुतः उनके कर्णप्रिय होने का राज क्या है? इसका सटीक उत्तर है कि वे किसी न किसी छंद पर आधारित होते ही हैं | यह भी आवश्यक नहीं है कि वे सिर्फ एक ही छंद विशेष में ढले हों अपितु उनके स्थायी व अंतरा में अलग-अलग छंदों का प्रयोग भी देखने को मिलता है | गीतों की यही छंदबद्धता उनमें आकर्षण उत्पन्न करते हुए उन्हें गेय बनाती है | अधिकतर यह पाया गया है कि पुराने फ़िल्मी गीतों का प्रारंभ अधिकतर एक दोहे से हुए करता था जो कि हमारे मन को आह्लादित कर दिया करता था | यथा चंद जैसे मुखड़े पे बिंदिया सितारा गीत में उसका आरम्भ ‘सब तिथियन का चन्द्रमा जो देखा चाहो आज | धीरे धीरे घूँघटा सरकाओ सरताज|| वाले दोहे से ही हुआ है |
अब विधाता या शुद्धगा छंद आधारित फ़िल्मी गीतों पर एक दृष्टि डालते हैं....
*विधाता छंद' की परिभाषा:*
(यगण +गुरु) x४
यमातागा यमातागा यमातागा यमातागा
यमातागा यमातागा यमातागा यमातागा
यमाता दीर्घ चारों हों विधाता छंद हो जाये
जहां चारों मिलें साथी वहाँ आनंद हो जाये||
: विधाता या शुद्धगा छंद का सूत्र है यगण+गुरुx४ अर्थात ‘यमाता गा यमाता गा यमाता गा यमाता गा’ (यहाँ पर ‘गा’ का तात्पर्य गुरु से ही है) या १२२२ १२२२ १२२२ १२२२. उर्दू में इसे बहर-ए-हज़ज़ मुसम्मन सालिम भी कहते हैं जिसके अरकान होते हैं ...मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन. इस छंद पर आधारित फ़िल्मी गीतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं.
(१) बहारों फू/ल बरसाओ/ मेरा महबू/ब आया है |
(१२२२/ १२२२/ १२२२/ १२२२)
(२) किसी पत्थर/ की मूरत से/ मुहब्बत का/ इरादा है |
(३) भरी दुनियां/ में आके दिल/ को समझाने/ कहाँ जाएँ|
(४) चलो इक बा/र फिर से अज/नबी बन जा/एँ हम दोनों |
(५) ये मेरा प्रे/म पत्र पढ़ कर/ , कि तुम नारा/ज ना होना|
(६) कभी पलकों/ में आंसू हैं/ कभी लब पे/ शिकायत है |
(७) ख़ुदा भी आ/समां से जब/ ज़मीं पर दे/खता होगा |
(८) ज़रा नज़रों/ से कह दो जी/ निशाना चू/क ना जाए |
(९) मुहब्बत ही/ न समझे वो/ जो जालिम प्या/र क्या जाने |
(१०) हजारों ख्वा/हिशें इतनी/ कि हर ख्वाहिश/ पे दम निकले |
(११) बहुत पहले/ से उन क़दमों/ की आहट जा/न लेते हैं |
(१२) मुझे तेरी/ मुहब्बत का/ सहारा मिल/ गया होता |
(१३) सुहानी चां/दनी रातें/ हमें सोने/ नहीं देतीं |
(१४) कभी तन्हा/ईयों में भी/ हमारी या/द आएगी |
यह तो हुई विधाता या शुद्धगा छंद आधारित गीतों की बात.... अब एक दृष्टि छंद ‘गीतिका’ आधारित फ़िल्मी गीतों पर डालते हैं. इसके लिए पहले यह जानना होगा कि गीतिका आखिर है क्या? पिन्गलशास्त्र के अनुसार गीतिका एक छंद है जिसका विधान निम्नलिखित है...
गीतिका में ही छंद गीतिका की परिभाषा:
(गीतिका : चार चरण, १४ पर यति देते हुए प्रत्येक में १४-१२ के क्रम से २६ मात्रा तथा तीसरी ,१०वीं ,१७वी,२४वी मात्रा अनिवार्यतः लघु, कम से कम प्रथम दो व अंतिम दो चरण समतुकांत अंत में गुरु-लघु/रगण, कर्णमधुर.)
चार चरणी छंद मात्रिक, अंत लघु-गुरु 'गीतिका'.
योग है छब्बीस मात्रा, प्रति चरण, सुर प्रीति का.
तीन दस सत्रह व चौबिस, चाहिए लघु मात्रिका..
शेष बारह चौदवीं यति, तुक मनोहर वीथिका.
गीतिका का शिल्प सूत्र: ‘गीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका हरिगीतिका’ है व इसका गणसूत्र: ‘राजभा गा राजभा गा राजभा गा राजभा’ अर्थात २१२२ २१२२ २१२१ २१२ होता है| यहाँ पर भी ‘गा’ का तात्पर्य गुरु से ही है | का उर्दू विधान में इसे बहर-ए-रमल मुसम्मन महजूफ़ भी कहते हैं| जिसके अरकान फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन होते हैं
इस छंद पर आधारित फ़िल्मी गीतों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं ....
(१) दिल ही दिल में/ ले लिया दिल/ मेहरबानी/ आपकी
२१२२/ २१२२/ २१२१/ २१२
(२) ‘आपकी नज/रों ने समझा/ प्यार के का/ बिल मुझे’ (स्थायी) उपरोक्त गीत के अंतरे में निम्नलिखित प्रकार से शिल्प आंशिक रूप से परिवर्तित हो रहा है।
जी हमें मं/ जूर था/ आपका ये/ फैसला (राजभागा राजभागा राजभागा राजभा)
कह रही है/ हर नजर/ बंदापरवर/ शुक्रिया (राजभागा राजभागा राजभागा राजभा)
तद्पश्चात उपरोक्त गीत पुनः मूल शिल्प में आ जाता है
हँस के अपनी/ ज़िन्दगी में/ कर लिया शा/मिल मुझे
(३)दिल के टुकड़े/ टुकड़े करके/ मुस्कुरा के/ चल दिए
(४) चुपके चुपके/ रात दिन आँ/सू बहाना/ याद है
(५)हुस्नवालों/ को खबर क्या/ बेखुदी क्या/ चीज है
(६)यारी है ई/मान मेरा/ यार मेरी/ ज़िंदगी
(७)मंज़िलें अप/नी जगह हैं/ रास्ते अप/नी जगह
(८)सरफरोशी/ की तमन्ना/ अब हमारे/ दिल में है
(९)ऐ गम-ए-दिल/ क्या करूँ ऐ/ वहशत-ए-दिल/ क्या करूँ |
आजकल हमारे कुछ विद्वान् हिन्दी ‘ग़ज़ल’ को ‘गीतिका’ भी कह देते हैं जबकि मेरे विचार में इसमें कहे गए मतले और मकते को छोड़कर हिन्दी ‘ग़ज़ल’ विभिन्न छंदों पर आधारित एक ऐसी विधा है जिसमें कहे गए अधिकांशतः शेरों के में प्रति शेर एक मुक्त पंक्ति का प्रयोग होता ही होता है संभवतः इसी लिए आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी ने ‘हिन्दी ग़ज़ल’ को ‘मुक्तिका’ नाम दिया है यद्यपि उनके इस कथन में हमारी पूर्ण सहमति है तथापि आज गीतिका विधा सर्वमान्य हो गयी है |
अब आते हैं भुजंगप्रयात छंद पर तो इस छंद पर आधारित निम्नलिखित गीत की छटा ही निराली है इसका गणसूत्र ‘यमाता यमाता यमाता यमाता’ १२२ १२२ १२२ १२२ व उर्दू में अरकान ‘फईलुन फईलुन फईलुन फईलुन’ है इसका गण विन्यास निम्न प्रकार से है |
तेरे प्या/र का आ/सरा चा/हता हूँ
१२२/ १२२/ १२२/ १२२
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
दुपट्टे/ के कोने/ को मुँह में/ दबा के
ज़रा दे/ख लो इस/ तरफ मुस/कुराके
हमें लू/ट लो मे/रे नजदी/क आ के
के मैं आ/ ग से खे/ लना चा/हता हूँ
वफ़ा कर/ रहा हूँ/ वफ़ा चा/हता हूँ
अत्यंत लोक प्रचलित छंद मत्त सवैया या राधेश्यामी छंद जिस पर पंडित राधेश्याम ने राधेश्याम रामायण रची है की बात ही निराली है| अपने बचपन में हम, गाँवों में बच्चे-बच्चे को राधेश्यामी रामायण गाते हुए देखा करते थे |
हमारे द्वारा रची गयी 'मत्त सवैया' में ही 'मत्त सवैया' की परिभाषा निम्न प्रकार से है.....
*कुल चार चरण गुरु अंतहि है, सब महिमा प्रभु की है गाई.*
*प्रति चरण जहाँ बत्तिस मात्रा, यति सोलह-सोलह पर भाई.*
*उपछंद समान सवैया का, पदपादाकुलक चरण जोड़े.*
*कर नमन सदा परमेश्वर को, क्षण भंगुर जीवन दिन थोड़े..*
प्रायः ऐसा देखा गया है कि चार चरण से युक्त 'मत्त सवैया' छंद में प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएँ होती हैं जहाँ पर १६, १६ मात्राओं पर यति व् अंत गुरु से होता है | जब से पंडित राधेश्याम ने इस लोकछंद पर आधारित राधेश्याम रामायण रची थी तब से इसे 'राधेश्यामी छंद' भी कहा जाने लगा है!
इस पर आधारित गीत है ‘आ जाओ तड़पते हैं अरमां, अब रात गुज़रने वाली है.’ (मात्राएँ १६,१६) |
उपरोक्त के ‘जाओ’ शब्द में ‘ओ’ का उच्चारण लघुवत है |
अब आते हैं ‘वाचिक द्विभक्ति’ छंद पर जिसका गणसूत्र है
ताराज यमातागा ताराज यमातागा
२२१ १२२२ २२१ १२२२
मफ़ईलु मफाईलुन मफ़ईलु मफाईलुन
इसके कुछ उदाहरण निम्न प्रकार से हैं |
(१) सौ बार/ जनम लेंगे/ सौ बार/ फ़ना होंगे |
(२) हंगामा/ है क्यों बरपा/, थोड़ी सी/ जो पी ली है |
(३) हम तुमसे/ जुदा होके/ मर जायें/गे रो रो के |
(४) जब दीप/ जले आना/ जब शाम/ ढले जाना |
(५) साहिल से/ खुदा हाफ़िज़/ जब तुमने/ कहा होगा |
(६) इक प्यार/ का नगमा है/, मौजों की/ रवानी है |
(७) हम आप/की आँखों में/ इस दिल को/ बसा दे तो |
(८) ‘बचपन की/ मुहब्बत को/ दिल से न/ जुदा करना,
जब याद/ मेरी आए/ मिलने की/ दुआ करना. (स्थायी)
अंतरा:
घर मेरी/ उम्मीदों का/ अपना कि/ ये जाते हो
दुनिया ही/ मुहब्बत की/ लूटे लि/ए जाते हो
जो गम दि/ए जाते हो/ उस गम की/ दवा करना
यहाँ पर सबसे विशेष बात यह है कि चूँकि फ़िल्मी गीतों की धुन सहज ही कंठस्थ हो जाती है अतः इन धुनों को सहारा लेकर इन धुनों में ही छंद रचना अत्यंत सहज हो जाता है| इसके बाद जब हम मात्राओं व गणों की गणना करते हैं तो वह तत्संबंधित छंद पर एकदम खरी ही उतरती है |
इस प्रकार से हिन्दी चित्रपटीय गीतों जिनती भी विवेचना की जायेगी अर्थात हम जितने ही गहरे उतारते जायेंगें हमें उनमें निहित छंदों से उतनी ही अधिक आनंद की अनुभूति होगी | इति |
(नोट उपरोक्त सभी गीतों में लघु-गुरु का निर्धारण उनके उच्चारण के अनुसार ही किया गया है)
लेखक:
-- इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
९१, आगा कालोनी सिविल लाइन्स सीतापुर, उत्तर प्रदेश,
मोबाइल, ९४१५०४७०२०
*साहित्यकार का परिचय:
_________________________
*नाम: इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’
*पिता का नाम: स्व० श्री राम कुमार श्रीवास्तव
*माता का नाम: श्रीमती मिथलेश श्रीवास्तव
*पता: ९१, आगा कालोनी सिविल लाइंस सीतापुर
*ईमेल: ambarishji@gmail.com
*व्यवसाय: आर्कीटेक्चरल इंजीनियर
*शिक्षा: स्नातक, भूकंपरोधी डिजाइन इंजीनियरिंग कोर्सेज (आई० आई० टी० कानपुर)
*व्यावसायिक सदस्यता: भारतीय भवन कांग्रेस, भारतीय सड़क कांग्रेस, भारतीय पुल अभियंता संस्थान, भारतीय गुणवत्ता वृत्त फोरम, भारतीय तकनीकी शिक्षा संघ, अमेरिकन सोसायटी ऑफ़ सिविल इंजीनियर्स, आर्कीटेक्चरल इंजीनियरिग संस्थान (अमेरिका) आदि.
*संपर्क: मोबाइल : ९४१५०४७०२०, ८८५३२७३०६६, ८२९९१३२२३७, दूरभाष: ०५८६२-२४४४४०
http://www.worldlibrary.in/articles/eng/Ambarish_Srivastava
*काव्य संग्रह :
(१) ‘जो सरहद पे जाए’
(२) ‘राष्ट्र को प्रणाम है’
*प्राप्त सम्मान व अवार्ड:
(१) इंदिरा गांधी प्रियदर्शिनी अवार्ड २००७
(२) सरस्वती रत्न सम्मान
(३) अभियंत्रण श्री सम्मान
* शौक: बाँसुरी वादन व कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ.
सादर धन्यवाद।
कवि शमशेर सिंह जलंधरा "टेंपो" ऐतिहासिक नगरी हांसी , हिसार , हरियाणा ।
पहला पत्थर
प्यार की ,
दुनिया की नींव का ,
पहला पत्थर ,
तुम हो प्रिय ,
चैन नहीं आता ,
जब बेचैन नहीं होता हूं ,
तब भी ।
तुम्हारा दीदार ,
हो गया है करार ,
जाने कैसा जादू है ,
तुम्हारी सूरत में ।
मैं पागल ,
करता हूं आज भी चिनाई ,
मोहब्बत वाली इमारत की ,
तुम्हारी यादों से ।
रचित ---- 27 - 10 - 2017
Mo. 09992318583
नूतन लाल साहू
अब के बसंत
दिखत नइ ये बसंत ह आगे हे
अब जमाना ह,बदल गे हे
सरसो ह पिवरा गे हे
ढंडा ह ढंडा गे हे
प्रकृति के मन म उमंग छागे हे
करा पानी, बरसात हे
दिखत नइ ये बसंत ह आगे हे
जेखर मन जइसे आत हे
ओइसने करत जात हे
माथा धर के,सब गुनत हे
अब का हो ही, आगू
परमाणु बम, अणु बम
रासायनिक बम, बनात हे
कोनो ला कोनो घेपय नहीं
कोनो ला कोनो टोकय नहीं
दुश्मनी मा,मया सना गे हे
दिखत नइये,बसंत ह आगे हे
होरी डांड गड़ागे हे
फागुन महीना ह,आगे हे
कउने रंग,लगा हूं
आसो के,होरी तिहार मा
मोर बुद्धि ह, सठिया गे हे
मनखे मन नगाड़ा न इ बजावत हे
प्रकृति ह फाग के धुन सुनावत हे
दिखत नइये बसंत ह आगे हे
जिहा चिरई चिरगुन करे चाव चाव
जिहा कऊवा मन करे, काव काव
जिहा कोलिहा कुकुर मन करे हाव हाव
उहे बसथे,मोर छत्तीसगढ़ के गांव
अइसन सुग्घर सरग ले सुंदर भुइया मा
असल खुशी ला,भुला गे हे
विदेशी समान ह,छा गे हे
दिखत नइ ये,बसंत ह आ गे हे
नूतन लाल साहू
सुलोचना परमार उत्तरांचली
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
*********************
धरती में जो अन्न उपजाए
अक्सर भूख से मरता वो ।
क्यों रहता वो दीन-हीन यहां
जब सबका पेट है भरता वो ।
क्यों अन देखी होती उसकी
तू ही तो कुछ परतें खोल
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
माँ ,बाप को कोई न पूछे
स्वयं पे है अभिमान यहां ।
हैं वो केवल खाली बोतल
लुढ़के हैं वो जहां तहां ।
उनको भी तो सबक सिखा
बखिया उनकी तू दे खोल ।
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
संस्कारों की होली जल रही
मेरे देश में जहां तहां ।
इस तरह से कैसे होगा
मेरे देश का भला यहां ।
अपनी भाषा में समझा तू
सबकी आँखे फिर से खोल
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
तूने ही इतिहास बदले हैं
तेरे दम से आज़ाद हुए ।
फिर क्यों मौन साधा है
सपने तेरे अब क्या हुए ।
अपने दिल के दर्द को तू
खुल के आज सबसे दे बोल ।
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
चीख पुकार मची है देश में
एक दूजे की जान से खेलें
दिल हैं खिलौने इनके देखो
एक दूजे के दिल से खेलें ।
क्यों होते हैं कत्ल यहां पर
तू भी तो कुछ रहस्य खोल ।
*कलम आज तू कुछ तो बोल*
स्वरचित
🌹🙏 उत्तरांचली 🙏🌹
डॉ सुलक्षणा अहलावत
किसको दोष दुँ मैं दिल्ली में हुए बवाल के लिए,
पत्थर से शहीद हुए अभागी माँ के लाल के लिए।
बोलो क्यों बाँध रखें हैं हाथ इन पुलिस वालों के,
कब तक मरेंगे बेचारे चँद वोटों के सवाल के लिए।
ठोकने दो बिना धर्म देखे इन दंगाइयों को एक बार,
वरना तुम दोषी ठहराए जाओगे इस हाल के लिए।
आज वोटों के लिए सुलगने दे रहे हो तुम देश को,
भूल गए कुर्सी सौंपी थी तुम्हें बस संभाल के लिए।
जो देश द्रोही नाग फन उठाये उसे कुचल दो तुम,
मत इस्तेमाल करो उनको कुर्सी की ढ़ाल के लिए।
कहने वालों की चिंता मत करो, वो कहते ही रहेंगे,
हाथी जाना जाता है अपनी मदमस्त चाल के लिए।
"सुलक्षणा" की मानकर कर जाओ तुम कुछ ऐसा,
इतिहास में जाने जाओ दंगाइयों के काल के लिए।
©® डॉ सुलक्षणा
संजय जैन (मुम्बई)
*घर में है....*
विधा : कविता
आज घर का माहौल,
बदला-2 सा दिख रहा है।
घर में कोई तूफान,
सा छा गया है।
यह मुझे घर का,
माहौल बता रहा है।
और प्रिये तेरी नजरो में,
भी मुझे नजर आ रहा है।
लगता है पूरी रात,
तुम सोये नहीं हो।
तभीतो चेहरा मुरझाया हुआ,
और घर बिखरा हुआ है।।
कोई बात तेरे दिलमें,
बहुत चुभ रही है।
जो तेरी दिलकी धड़कनों
को,
तेजी से बढ़ा रही है।
जिससे तेरे चेहरे की,
रंगत उड़ी हुई है।
और मेरी बैचेनी को,
बढ़ा रही है।।
कमाई के चक्कर में,
घर से बाहर चल रहा हूँ।
जिसके कारण परिवार से,
दूर होता जा रहा हूँ।
जब से वापिस आया हूँ,
घर में सन्नाटा छाया है।
जो मुझे अपनी गलतीयो का,
एहसास करा रहा है।।
इस बार घर आने में,
अधिक समय हो गया।
जिससे मिलने नहीं आ सका।
और उसकी इतनी बड़ी सजा,
खुदको क्यों दे रही हो प्रिये।
जबकि गलती सारी मेरी है,
तो सजा मुझे मिलना चाहिए।
अब हो रहा है मुझे अपनी,
गलतियों का एहसास।
क्या पैसे से पहले है या,
घर परिवार की खुशाली।।
जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
25/02/2020
निशा"अतुल्य"
निशा"अतुल्य"
देहरादून
आर्य
25/ 2/ 2020
आर्य को आदर्श जान
सद्भावना चले मान
छुआ छात जाने नही
सब को बताइये ।
ब्रह्म होता निराकार
गायत्री मंत्र साकार
प्राण वायु शुद्ध करो
हवन कराइये।
आहुति सामग्री साथ
धृत तिल मीठा साथ
सब एक साथ डाल
वायु शुद्ध पाइये।
परहित सदाचार
आर्यजन की पुकार
मिटा कर भेदभाव
गले लग जाइये ।
स्वरचित
निशा"अतुल्य"
सत्यप्रकाश पाण्डेय
साधक.........
व्याकुल सा रहता अन्तर्मन में,
जब न होता दीदार तेरा।
घेर लेती है आशंकाएं मुझको,
जब मिलता न प्यार तेरा।।
तुम अरुणिमा हृदय गगन की,
मृगमरीचिका मेरा मन।
स्वातिनक्षत्र की बूंद प्रियतमा,
चातक जैसा मेरा मन।।
एक पल का भी विरह तुम्हारा,
होता सहस्राब्दी जैसा।
बिना पावस कृषक की भांति,
हर क्षण त्रासदी जैसा।।
तुम प्रेम पीयूष का कलश प्रिय,
और मैं प्यासा राहगीर।
रजनीश रहित गगन देख कर,
होती है कमोद को पीर।।
तुम हो जीवन आधार प्रेयसी,
तुम ही हो आभूषण मेरा।
तुम से ही है आलोकित हृदय,
तुम भव आकर्षण मेरा।।
मन मन्दिर का विग्रह हो तुम,
मैं प्रिय तेरा आराधक।
शान्त सरोवर अब मेरा हृदय,
बन गया मैं तो साधक।।
सत्यप्रकाश पाण्डेय🍁🍁
सुनील कुमार गुप्ता
कविता:-
*" बेटियाँ"*
"बेटियाँ तो जीवन में साथी,
प्रभु का दिया हुआ -वरदान।
बेटी ही जीवन में बनती,
घर परिवार का सम्मान।।
माँ -बहन-रूप साथी,
पूजी जाती हैं संतान।
पत्नि रूप में पा कर साथी,
मिटता जीवन का अज्ञान।।
बेटियाँ ही बनाती साथी,
नये नये कीर्तिमान।
यहाँ फिर उपजा नही साथी,
कभी बेटी में अभिमान।।
देती सुख ही सुख जीवन में,
बेटी-बेटा एक समान।
बेटियाँ तो जीवन में साथी,
प्रभु का दिया हुआ-वरदान।।"
सुनील कुमार गुप्ता
कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड)
💐🌹सरस्वती --वन्दना🌹💐
जनप्रिय माँ जनोपकारणी
जग जननी, जल जीवधारणी।
स्वर्णिम ,श्वेत, धवल साडी़ में
चंचल, चपल,चकोर चक्षुचारणी।
ज्ञानवान सारा जग करती माँ
अंधकार, अज्ञान सदैव हारणी
विद्या से करती,जग जगमग
गुह्यज्ञान,गेय,गीत, गायनी।
सर्व सुसज्जित श्रेष्ठ साधना सुन्दर
हर्षित, हंस-वाहिनी,वीणा वादिनी
कर कृपा,करूणा, कृपाल,कब कैसे,
पल में हीरक---रूप-- प्रदायिनी।
मूर्त ममतामय,ममगात मालती,
जब भटके,तम में माँ तुम्ही संवारिणी,
कितने कठिन, कष्ट कलुषित झेले माँ,
मार्ग प्रकाशित करदे माँ,मोक्षदायिनी।
जनप्रिय माँ जनोपकारणी
जग जननी, जल जीवधारणी। ।
💐💐💐💐💐💐💐💐
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड)
एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली*
*विविध हाइकु।।।।।*
दिया सलाई
यही घर जलाती
या रोशनाई
तेरा लहज़ा
तुम्हें बिगाड़ता भी
या है सहेजा
काम में मज़ा
थकान होती नहीं
न बने सज़ा
झूठा आईना
होता न कभी चाहे
टूटा आईना
तेरा तरीका
तेरी पहचान है
तेरा सलीका
संवर जाती
हाथ की लकीरें भी
बदल जाती
घृणा का नर्क
जब मन में बसे
तो बेड़ा गर्क
*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर"श्री* *हंस"।बरेली।
*जीवन बहुत अनमोल है।।*
*।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*
रोज़ धीरे धीरे मरना नहीं
हँस हँस कर जीना है।
असली आनंद जीवन का
मेहनत खून पसीना है।।
जरा छोड़ कर देखो अहम
सलीका जीने का आयेगा।
प्रभु का मिला वरदान जीवन
एक अनमोल नगीना है।।
*रचयिता।।।एस के कपूर"श्री*
*हंस"।।।।।।।।।बरेली।।।।।।।*
मोब 9897071046।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।
एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*
*नफरत की आग,प्रेम का जल*
*मुक्तक*
चलो मनायें उसको जो
घृणा का शिकार है।
महोब्बत की तो उसको
बेहद दरकार है।।
जान ले तेरी कोशिश असर
करेगी पर धीरे धीरे।
तू करता चल जिंदगी से भी
तेरा यही करार है।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मो 9897071046
8218685464
एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*
*तेरी सोच में हौंसलों की उड़ान हो।*
*मुक्तक*
हौंसलों में जान हो तो मंजिल
अवश्य मिलती है।
सपनों में उड़ान हो तो मंजिल
अवश्य मिलती है।।
तेरे इरादे इच्छा शक्ति ताक़त
रखते हैं कमाल की।
जोशोजनून परवान हो तो मंजिल
अवश्य मिलती है।।
*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस।*
*बरेली।*
मो 9897071046
8218685464
सत्यप्रकाश पाण्डेय
भाव अलंकृत कैसे हों
कैसे जीवन का परिष्कार
व्यंजनाएँ मधुमय बनें
दुष्प्रवृत्तियों का बहिष्कार
शुद्ध विचार हों अपने
अन्तर्मन सौम्यता परिपूर्ण
रहे जाग्रत विवेक सदा
आध्यात्म भाव से संपूर्ण
त्याग भरी जीवन शैली
परोपकार का लिए संकल्प
ममत्व समत्व से पूरित
सुरभित मन दुःख न अल्प
दुखानुभूति से परे रहें
निर्मल चित्त हो उदार मना
हे करुणामय गोविंद
तव चरणों में है यही सना।
सत्यप्रकाश पाण्डेय
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