सत्यप्रकाश पाण्डेय

हे बृजठाकुर मैं हूं शरण तुम्हारी
जग आपद हरो मेरी कुंजबिहारी
बृषभानु लली श्रीराधे रानी जी
श्रीमाधव संग करो सहाय हमारी


मोहमाया में पड़ भूल न जाऊँ
जीवन के पल तुम्हारे संग बिताऊँ
तुम ही आराध्य आराध्या मेरी
मुख से श्रीराधे गोविन्द गुण गाऊं


युगलछवि मेरे मनमंदिर बसी
नयनाभिराम रूप दृष्टि मेरी कसी
सत्य जीवन के आधार नाथ
बिन तेरे प्रभु ज्योति लागे मसी।


श्रीराधे कृष्ण 🌸🌸🌸🌸🌸🙏🙏🙏🙏🙏


सत्यप्रकाश पाण्डेय


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
       *"दर्पण"*
"जीवन सत्य को समर्पण,
सत्य सद्कर्मो  को अर्पण-
मन एक दर्पण।
झूठ फरेब सब इस धरा पर,
बन रहे जीवन के -
आडम्बर।
यथार्थ जीवन में भूले सत्य,
स्वार्थ में जीवन-
अपना समर्पण।
बीत गया जीवन अपनों में,
बीता जीवन सपनों में-
मन एक दर्पण।
अपनत्व की धरती पर,
मिला नहीं संग-
मन एक दर्पण।
जीवन सत्य को समर्पण,
सत्य सद्कर्मो को अर्पण-
मन एक दर्पण।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः    सुनील कुमार गुप्ता

ःःःःःःःःःःःःःःःःः


राजेंद्र रायपुरी

😌   हो रही कैसी सियासत   😌


देख  कर  मंज़र  समझ  में आ रहा है। 
कौन किसको और क्यों भड़का रहा है।


जानते  तो  आप  भी  हैं  क्या कहूॅ॑  मैं,
क्यों ज़हर का  बीज  बोया  जा रहा है।


चल  रहे  हैं  चाल  वे सब सोचकर ही,
ताज  दूजे  सिर न उनको  भा  रहा है।


हुक्मरानों  की  फ़जीहत हो रही जब, 
तब  मज़ा  उनको बहुत ही आ रहा है।


कौन  है वो  सोचिए  ख़ुद क्या कहूॅ॑ मैं, 
कौन   दंगा   देश   में   फैला   रहा  है।


हो रही कैसी  सियासत आज-कल ये,
ताज ख़ातिर  ख़ूं  बहाया  जा  रहा है।


              ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

*हे विद्या की देवी सरस्वती शत् शत् नमन करता हूं*
********************
हे मां सरस्वती
तुम्हें मैं प्रणाम कर रहा,
हम तिमिर से घिरें है,
तुम हमें प्रकाश दो,
योग्य पुत्र बन सकें,
हमें स्वाभिमान का दान
 दो,
भाव में अभिव्यक्ति दो,
तुम हमें विकास दो।


हे मां सरस्वती
लेखनी में धार दो,
विनम्रता का दान दो हमें,
हम तुम्हें शत् शत् प्रणाम कर रहे,
नित प्रयास दो हमें,
हमें विचार का अभिदान दो,
वाणी में मिठास दो,
बुद्धि में सुमति दो मां।


हे मां सरस्वती
चित्त में शुचिता भरो,
कर्म में सत्कर्म दो,
हे मां मनीषिणी  हम पर कृपा कर,
देवी तुम प्रज्ञामयी हो,
हम नित्य तुम्हारी आरती करें।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"तिरस्कृत फिर माँ काहे?"*
(कुण्डलिया छंद)
"""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
●महती महिमा मातु की, सीख सकल संसार।
सच्ची शुचि संवेदना, परम पुलक परिवार।।
परम पुलक परिवार, नेह की ज्योति जलाती।
देकर शुभ आशीष, मातु देवी कहलाती।।
कह नायक करजोरि, स्रोत प्रेमिल बन बहती।
सींचे सारी सृष्टि, मान माँ महिमा महती।।


●सहती सब संताप को, माँ मन-धारे धीर।
प्रगट करे न कहीं कभी, अपने मन की पीर।।
अपने मन की पीर, भलाई सबकी चाहे।
करती है उपकार, तिरस्कृत फिर माँ काहे??
कह नायक करजोरि, दुःख में निशिदिन दहती।
करे न पर अपकार, कष्ट चुपके से सहती।।
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
"""'''''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""""


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

स्वतंत्र रचनाः 
दिनांकः २८.०२.२०२०
वारः शुक्रवार
विधाः उन्मुक्त छन्द(कविता)
विषयः अमर शहीद चन्द्र शेखर आज़ाद
शीर्षक: श्रद्धाञ्जलि गीत 
अति साहस धीरज था भुजबल
भारत माँ का  लाल, 
इतराती आजाद पूत पा
आँसू भर माँ  नैन विशाल।
पराधीन निज मातृभूमि को ,
विचलित था वह बाल ,
कसम लिया लोहा लेने का ,
करने अंग्रेजों को बदहाल ।
कूद पड़ा परवान वतन ,
वह शौर्यवीर  आज़ाद, 
आतंकित भयभीत ब्रिटिश वह ,
जनरल डायर था बेहाल।
महावीर चल पड़ा अकेला ,
यायावर  पथ बलिदान ,
चन्द्र शिखर बन भारत माँ का ,
बस ठान मनसि अरमान।
बना अखाड़ा युद्ध क्षेत्र अब,
अल्फ्रेड पार्क  प्रयाग ,
महाप्रलय विकराल रौद्र वह,
आज़ाद हिंद अनुराग।
घबराया जनरल डायर अब ,
घेरा पार्क सैन्य चहुँओर ,
चली गोलियाँ छिप छिप कर ,
ले ओट वृक्ष दूहुँ ओर ।
ठान लिया जीवित नहीं मैं ,
पकड़ा जाऊँगा  आज ,
श्वांस चले जबतक जीवन का,
मैं बनूँ  वतन   शिर  साज ।
मरूँ राष्ट्र पर सौ जन्मों तक ,
मम जीवन  हो  सौभाग्य ,
आज मरोगे खल डायर तुम ,
फँस  आज  स्वयं  दुर्भाग्य।
तोड़ वतन परतंत्र शृंखला ,
दूँ भारत  स्वतंत्र  उपहार,
कण्ठहार बन खु़द बलि देकर ,
बनूँ मैं भारत माँ शृङ्गार।
रे डायर कायर बुज़दिल तुम,
होओ अब मरने को तैयार , 
यह गोली तेरा महाकाल बन ,
देगी  मौत  बना उपहार ।
हुआ भयानक वार परस्पर ,
चली गोलियों  की  बौछार , 
जांबाज़ वतन आज़ाद हिंद वह ,
कायर  डायर बना  लाचार।
दावत देता वह स्वयं मौत को ,
था डर काँप रहा अंग्रेज ,
महाबली वह बन प्रलयंकर ,
आजाद था देशप्रेम  लवरेज।
दुर्भाग्य राष्ट्र बन वह पल दुर्भर ,
बची अग्निगोलिका एक ,
चला उसे धर स्वयं भाल पर ,
किया राष्ट्र अभिषेक ।
रक्षित संकल्पित निज जीवन 
तन रहूँ बिना रिपु स्पर्श ,
दे जीवन रक्षण माँ भारति!
चन्द्र शेखर आज़ादी उत्कर्ष।
काँप रहा था हाथ पास लखि
पड़ा शव शिथिल देह बलिदान ,
आशंकित मन कहीं उठे न , 
वह आजा़द  वतन  परवान ।
गुंजा भारत जय हिन्द शेर बन
आजाद़ वतन सिरमौर,
अमर शहीद प्रेरक युवजन का ,  
पावन स्मृति बन निशि भोर।
शत् शत् सादर नमन साश्रु हम , 
श्रद्धा  सुमन अर्पित तुझे आज़ाद,
ऋणी आज तेरी बलि के हम,
राष्ट्र धरोहर रखें सदा आबाद।
अमर गीति बन स्वर्णाक्षर में 
लिखा  वीर अमर  इतिहास ,
युग युग तक गाया जाएगा ,
चन्द्र शेखर आजा़दी आभास।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


डॉ जितेन्द्र ग़ाज़ीपुरी

लहू का रंग सिर्फ़ लाल होता है
इसलिए
चाहे कोई भी नस्ल हो
कोई भी जाति हो
कोई भी मज़हब हो
इसका बहना
जीवन से ऊर्जा का क्षय हो जाना है
जीवन को संचित करना है
तो लहूलुहान न करें
मानवता का जनपथ
डॉ जितेन्द्र ग़ाज़ीपुरी


अतिवीर जैन पराग  मेरठ

सभी को नमन,गुजारिश


गुजारिश :-
गुजारिश है कि मत,
वतन को जलाओ यारो.
मत झुठ दर झुठ बोलो,
मासूमों को भडकाओ यारो.


गुजारिश है कि मत,
हिंसा को भडकाओ यारो,
मत पत्थर,एसिडबॉम्ब,
गोलियाँ,बरसायों यारो.


गुजारिश है कि मत,
बेगुनाहों कि  
लाशें बिछाओ यारो.
मत अपनी गंदी राजनीति,
लाशों पे चमकाओ यारो.


गुजारिश है कि मत,
अपना देशधर्म भूल,
राजधर्म याद दिलाओ यारो 
प्यार से रहने दो,मत 
जनता को भडकाओ यारो.


स्वरचित,
अतिवीर जैन पराग 
मेरठ


गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

"हाँ ! मैं बदल गया"
""""""""""""""'''""""""""""
जिंदगी के सफर में
मैं चलता गया
किस्मत ने जैसे नाच नचाया
वैसे नाचता गया
खुद को बहुत संभाला
कहीं सँभला तो कहीं फिसल गया
वो लोग ही थे मेरे अपने
जो जज्बातों के संग खेला
किसी ने विश्वास तो किसी ने दिल को तोड़ा
वक़्त था बदलने का और मैं बदल गया
बड़ी मासूमियत से कह रहे हैं वो लोग
देखो ये कितना बदल गया ।।


गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
©®


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक नए फागुनी गीत का मुखड़ा


होरी  खेलों  हमारे  संग, देखो  फागुन  आऔ  हैं।
मुखड़े   पर लगाओ ये रंग, देखो फागुन आऔ हैं।
डारि के रंग चुनर भिगो दी, चोली भिगो दई मोरी।
पकड़ि कलाई पास बुलावै, वो खूब करै बरजोरी।
खूब  मन मे भरे हैं उमंग, मनोज  सब पे छाऔ हैं।
होरी  खेलों  हमारे  संग,  देखो  फागुन  आऔ हैं।(1)


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


प्रखर दीक्षित

दानवता  जब सिर चढ़कर बोले।
निर्ममता जब भय के पट खोले ।।
तब स्वाभिमान हित शिव नर्तन,
विद्वेष विखंडित क्रूरता भय डोले।।


प्रखर दीक्षित


डा इन्दु झुनझुनवाला

विषय -देश प्रेम 


आज तिरंगा रोता है ।


जब कोई सैनिक सीमा पर, अपना शीश चढ़ाता है।
 जब कोई माँ का लाल, तिरंगे मे लिपट कर सोता है। 
तब शान से यह लहराता है ।


पर आज तिरंगा रोता है।


जब वीर कोई परिवार छोड,सीमा पर ठाँव बनाता है ,
तब माइन्स डिग्री पे देखो ,बिछौना बर्फ सजाता है । 
तब शान से यह लहराता है ।


पर आज तिरंगा रोता है।


सर्दी गर्मी हो धूप छाँव,बरसात या खाने के लाले,
जब कोई प्रेमी देशप्रेम पे, अपनी जान लुटाता है ।
तब शान से ये लहराता है ।


पर आज तिरंगा रोता है ।


पर जब कोई देश का वासी, देश के अन्दर सेंध लगाता है ।
जब कोई भारत का बनकर ,भारत माँ को ही सताता है ।


तब माँ का तिरंगा रोता है ।
 आज तिरंगा रोता है।


जब  देश द्रोह का साथी बन,वो पीठ पे वार कराता है ।
माँ का लाल फिदायिन बन,जब माँ की कोख लजाता है। 
मजबूर तिरंगा रोता है ।


पर आज तिरंगा रोता है।


हिन्दु मुस्लिम के झूठे खेल,हर कौम की नाक कटाता है ।
स्वार्थ मे डूबा मानव,दानव बन,मानवता को ठुकराता है ।
ऐसे मे  तिरंगा रोता है । 


आज तिरंगा रोता है ।
डा इन्दु झुनझुनवाला 
👏


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

ताटंक छंद गीत
माना कि सफर कुछ लंबा है, चलते ही पर जाना है।
पथ पर अविचल चलकर  ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
चाहे जितने अटकल आयें, मंज़िल को तो पाना है।
पथ पर अविचल चलकर  ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।


*ऋतुएँ भी तो बदलेंगी ही, शरद-उष्ण भी आना है।
सहकर मौसम की मारों को, समरस-सुमन खिलाना है।।
हर्षाकर हिय भारत भू का, अमन-चमन लहकाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।


*नवल-शोध, नित नव उन्नति से, कर्म-केतु फहराना है।
हम हैं पावक-पथ के पंथी, लोहा निज मनवाना है।।
हार-हराकर हर हालत में, प्रशस्त पंथ कराना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।


*मानवता के जो हैं रोधी, उनको सबक सिखाना है।
आस्तीन-छिपे साँपों का भी, फन अब कुचला जाना है।।
लिख साहस से इतिहास नया, अपना धर्म निभाना है।
पथ पर अविचल चलकर ही तो, कंटक-जाल हटाना है।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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नूतन लाल साहू

फागुन तिहार
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे परसा के फूल
गा ले होरी के गीत
गा ले होरी के गीत
आमा मऊरागे,कोयली बऊरागे
जाड़ पतरागे
नाचत हे, सल्हई मैना
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे परसा के फूल
गा ले होरी के गीत
गा ले होरी के गीत
रतिहा अंजोरी,अगोरा मया गीत
तिहार लकठागे
पुलकत हे,परानी
चारो खुट, खुसी समागे
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे,परसा के फूल
गा ले,होरी के गीत
गा ले,होरी के गीत
महर महर,महकै अमरईया
पगली कस, कुहक़य कोयलिया
बाजय झांझ,मंजीरा
चुटकी भर,गुलाल लगा ले
फागुन हा आ गे
बजा ले नगाड़ा
फूल गे हे,परसा के फूल
गा ले,होरी के गीत
गा ले, होरी के गीत
नूतन लाल साहू


डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

दिनांक: २७.०२.२०२०
दिन: गुरुवार
शीर्षक: उठी घृणा की धूम
विधा: दोहा
छन्द: मात्रिक
आसमान  काला  हुआ , उठी  घृणा  की  धूम। 
उड़े मौत भी गिद्ध बन , देख अमन  महरूम।।१।।
कट्टर   है   नेतागिरी , भड़काते    जन  आम।
जला रहे, खुद भी जले, बस भारत  बदनाम।।२।।
क्या  जाने   वे   दहशती , क्या  माने  है धर्म।
परहित प्रीत सुमीत क्या , दया कर्म या  मर्म।।३।।
शान्ति नेह समरस मधुर, क्या  जाने  शैतान।
सौदागर जो मौत   के , खुद जलते ले  जान।।४।।
अफवाहें भड़काव के , फैलाते  जन  भ्रान्ति।
मार काट दंगा वतन ,  मिटा  रहे   वे  शान्ति।।५।।
देर  हुई सरकार की , कत्ल  हुआ जन आम।
निर्दोषी   लूटे    गये , मौत    खेल  अविराम।।६।।
आज    बने    जयचंद बहु ,आस्तीन का सर्प। 
वैर    भाव   हिंसा घृणा , सदा मत्त डस  दर्प।।७।।
महाज्वाल प्रतिशोध की, जले पचासों  जान।
लुटी खुशी उजड़े चमन , बन मातम   हैवान।।८।।
रहो सजग हर पल सबल, अनहोनी आगाज़। 
निर्भय नित जीवन्त पथ ,कर आपदा इलाज़।।९।।
कवि निकुंज करता विनत,जागो जन सरकार।
बांटो  मत  भारत  वतन , करो  नाश     गद्दार।।१०।।
डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"  हरिद्वार से

दिनांकः ७२.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः 🙋महाशक्ति बन प्रलय सम☝️
महाशक्ति बन प्रलय सम, कौन कहे कमजोर।
कहो  न  अबला  नारियाँ , निर्भयता    बेजोड़।।१।। 
पढ़ी  लिखी  मेधाविनी,चहुँदिशि करे विकास।
भर  उड़ान   छूती  गगन , अंतरिक्ष  रनिवास।।२।।
गहना बन  कुलधायिका ,ममता बन जगदम्ब।
बेटी  बन  लज्जा  पिता , भातृ प्रीत अवलम्ब।।३।।
प्रियतम का अहसास बन,वधू रूप कुल मान।
पतिव्रता   सीता    समा , बन     दुर्गा   संहार।।४।।
शील त्याग मधुभाषिणी , कुपिता बन अंगार।
याज्ञसेनि      वीराङ्गना , प्रिय वल्लभ  शृंगार।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नयी दिल्ली



दिनांकः २७.०२.२०२०
वारः गुरुवार
विधाः दोहा 
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः🥀निशिचन्द्र✍️
पत्नी है अर्द्धांगिणी , सुख दुख   की सहभाग।
वधू    मातु   गृहलक्ष्मी , रणचण्डी  अति राग।।१।।
स्नेह शील तनु त्याग नित,अर्पण निज सम्मान। 
लज्जा   श्रद्धा    अंचला, कुलदात्री    वरदान।।२।।
दारा   भार्या   प्रियतमा , स्त्री  जीवन   संगीत। 
बन  यायावर     सारथी ,  मीत प्रीत  नवनीत।।३।।
निश्छल मन पावन हृदय,स्वाभिमान व्यक्तित्व।
प्रिया प्रसीदा  भाविनी , महाशक्ति    अस्तित्व।।४।। 
कवि निकुंज जीवन सफल,निशिचन्द्र अनुराग।
बनी सफल कविकामिनी , कीर्तिपुष्प रतिराग।।५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" 
हरिद्वार से 👉


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  झज्जर (हरियाणा )

बांसुरी सा.... 


सुबह जब उठा 
तो मीठी सी ध्वनि 
कानों  में गूँजी 
देखा जो दूर नज़र उठा 
एक यौवना बांसुरी बजाती हुई 
अपने आप में मस्त 
धुनों में रमती हुई 
सुर-ताल से सजी 
होठों से बजती हुई. 
एैसा लगे मानो 
ढूंढ़ती हो अपने स्वप्नों को 
अनरचे गीतों को 
आकांक्षाओं को 
दूसरी दुनिया से अन्जान 
जैसे कुसुमित निर्झर फुहार 
खेतों में, खलियानों में, 
कुंजों में, निकुंजों में, 
यमुना के कछारों में, 
आरती में, भजन की तरंगो में 
जो भी पुकार सुने चलता राही 
ठहर जाता है
 खींचा चला आता है. 
गोपियों सा मन -मीत बन जाता है 
कुछ तो बात थी 
उसकी उँगलियों में "उड़ता "
जो हल्का सा शौर भी 
गीत -ए -मंजर बन जाता है. 



✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227


सुरेंद्र सैनी बवानीवाल  झज्जर (हरियाणा )

उन्हें याद रख..... 


नेकी का रास्ता मुकम्मल है, 
तू इंसानियत के साथ चल. 
एहसास के धागे से बांध ले, 
तू रोमानियत के साथ चल. 
दिल में थोड़ा तरस रख, 
हैवानियत को नकार चल. 
किसी के लिए छत बन, 
रवायतों के हिसाब चल. 
उनकी कुर्बानियों को याद रख, 
शहादतों के समाज चल. 
जज़्बातों से जुड़े रिश्ते, 
अमानतों के आज चल. 
चरित्रहीन हुए कुछ लोग, 
उनकी जमानतों के बाद चल. 
भला करके भूल जा, 
सब खयानतों के हाथ चल. 
ज़माने के एहसान तुझपर "उड़ता ", 
तू बस नियामतों को याद रख. 


✍️सुरेंद्र सैनी बवानीवाल 
झज्जर (हरियाणा )
📱9466865227


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

शेर


हमारा हर गम उठा कर कभी भी उफ़ तक न करते।
ज़माने  भर  को  ख़ुशी  बाँटते  खूब  अजीब  है वो।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड

ओज कविता –भारत की मुस्कान लिखुंगा 
कहोगे मुझसे मै  तो नाम हिंदुस्तान लिखुंगा ।
एक बार नहीं सौ बार नहीं शुबहों शाम लिखुंगा ।
नही भुला  मै महाराणा  के भालाऔर  चेतक को ।
बीर भुजाए ऊंचा ललाट मातृभूमि के रक्षक को ।
अंतिम दम लड़नेवाला भारत का स्वाभिमान लिखुंगा ।


वीर शिवाजी लक्षमी बाई की वीर गाथा गाउँ ।
सम्राट अशोक विक्रमादित्य को सिर माथा नवाऊँ ।
भारत माता  चरणों का जुग जुग दास्तान लिखुंगा ।


बंद आंखो से बेध दिया सीना गोरी पृथवी राज ने ।
चंदबरदाई ने किया कविता इसारा  कविराज ने ।
गाजर मुली जैसा काटा मुगलो का कब्रिस्तान लिखुंगा ।


 साल नहीं दो साल नहीं हजारो साल इतिहास हमारा है ।
संग्राम हजारो झेला हमने फिर भी भारत खास सवारा है ।
नहीं मिटा है नहीं मिटेगा भारत का घमासान लिखुंगा ।


गंगा यमुना सरस्वती चरण पखारती  है  जिसका  ।
चोटी हिमालय सिर ऊंचा उठाती है जिसका ।
चहके चहु सोन चिरइया भारत का मुस्कान लिखुंगा । 
श्याम कुँवर भारती ,बोकारो ,झारखंड


कैलाश , दुबे होशंगाबाद

दो घड़ी हमसे भी प्यार कर ले ,


भले ही झूटा इकरार कर ले 


हम भी मनचले हैं बहुत ही यारा ,


ज़रा नजरों के बारे इधर भी कऱ ले ,


कैलाश , दुबे


रीतु प्रज्ञा         दरभंगा, बिहार

सितम


ये कैसी  सितम है आयी
शैतानों ने नींद है चुरायी
दुकान,घर सब है जला
लोभी भेड़िया है इधर-उधर खड़ा
दरिंदगी से धुआँ-धुआँ सा है पवन
खौफ समाया है प्रति जन के बदन
माँ खोती जा रही हैं सुनहरा कल
रहा न कोई देने वाला मीठा फल
बहने ढूंढू रही हैं रक्षाबंधन वास्ते कलाईयाँ
घड़ी-घड़ी मिल रही हैं रुसवाईयाँ
अश्रुपूरित नैना करती हैं सवाल
सितमगर क्यों देते गमों का सैलाब?
             रीतु प्रज्ञा
        दरभंगा, बिहार


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

एक फागुनी छंद


होली  मा  रंग  गुलाल, उड़ावति भिगोवति,
निज  चोली  बड़ा   वह, लट   लहराती  हैं।
मेलति  गुलाल  मुख, पे सबै के दौड़ि दौड़ि,
चुनरि   उठाइ    हाथ,  निज   फहराती  हैं।
किसी की न सुनति हैं, कोई भी न बात वह,
भरे   पिचकारी    बस,   रंग   बरसाती  हैं।
अब  नर  नारी  कोई, पहिचाने  न जाति है,
रंग  सनी  छवि  उसकी, हिय  हरसाती  हैं।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


आलोक मित्तल रायपुर

मुक्तक


आप में से वो विधाता कौन है,
आग आ आ कर लगाता कौन है 
हर तरफ इंसान रहते है यहाँ 
फिर वतन आ कर जलाता कौन है ।


** आलोक मित्तल **


निधि मद्धेशिया कानपुर

देश


थाह नहीं पा सकता चिड़ा 
पैठ गयी कितनी गन्दगी
सागर के पानी में है।
घोंसला चिड़ियों का अब
बाजों की निगरानी में है।
मंच से कह दी जाए कितनी 
अच्छी बातें, विष घुला है
दूध में, पानी में है।
गाते जो गाथा,शौर्य 
इतिहास का 
उन्हें ही भा रही चित्कार
जो नर-नारी में है।


निधि मद्धेशिया
कानपुर


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