कवि डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचनाः मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

स्वतंत्र रचना सं. २७८
दिनांकः २९.०२.२०२०
वारः शनिवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः होली दे संदेश
माघ फाग अहसास बन, आयी मादक संग।
पर खूनों की होलिका , की   होली   बदरंग।।१।।
नफ़रत की पिचकारियाँ , भर खूनों का  रंग। 
छायी  दहशत  की  नशा , मार काट  हुरदंग।।२।।
घर दूकान वाहन  सब , चढ़े होलिका   भेंट।  
जले ज्वाल दंगा अनल,स्कूली परिणय सेट।।३।।
बैठ  होलिका  गोद  में , प्रेम  शान्ति प्रह्लाद।
जली  आग  इन्सानियत,निर्ममता अवसाद।।४।.
हालाहल  दुर्भाव  में , जलता  देश  समाज।
मिली कपट हिंसा घृणा,भांग फाग आगाज।।५।।
आतंकी साजीश सच,हिरण्यकशिपु अनेक।
घोल  रहे  हिंसक बने , घृणा  रंग  अतिरेक।।६
बन गुलेल पिचकारियाँ , पत्थर  रंग  फुहार। 
बने शस्त्र  पेट्रोल  बम , मौत  फाग उपहार।।७।।
मिटी फाग सारी खुशी, खोकर अपने लोग।
छा मातम जन मन वतन,फँसे नफ़रती रोग।।८।।
नग्न नृत्य जब मौत की , तब चेती सरकार।
छूट मिली  रक्षक  वतन , रोक  थाम गद्दार।।९।।
अपनों को खोकर मनुज,शोकाकुल है मौन। 
है  प्रश्न मानस  निकुंज , सोचो  दोषी  कौन।।१०।।
बने मीत हम प्रीत फिर ,भरे घृणा मन खाई।
रहे शान्ति एका वतन , हम  सब भाई भाई।।११।।
आओ मिल मन्नत करें , जले होलिका द्वेष।
प्रीत नीति बन फागुनी , होली   दे  संदेश।।१२।।
भूलें हम सब गम सितम,बढ़े पुन: नव जोश।
रंगे   रंग उत्थान  पथ , रह जाग्रत नित होश।।१३।।
नवजीवन नवरंग बन ,अधर सुखद मुस्कान।
बिना भेद सबकी प्रगति, हो सबको सम्मान।।१४।।
सर्व   धर्म   सद्भावना  , होली   हो   त्यौहार।
फिर निकुंज आहत चमन,सजे प्रीति शृङ्गार।।१५।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


पी एस ताल

*मालवी में रचना* 


मु तो उठिग्यो
अखबार पढ़ी न
खटिया पर लेटिग्यो।


दूध वारो आयो
तपेला में दूध 
उड़ेग्यो।


तपेलो किचन में लेग्यो,,
गैस के चूल्हा पर चढायो
चाय पत्ती नाक्यो।


थोड़ी बाद चाय उबारियो,
चाय छलनी में चांयो,
कप में ली पियो,


गण्णी गण्णी 
मीठी लागी ,
पर चाय सुहादी।


फिर बिस्तर गादी
पलँग ती उठादी।


✒पी एस ताल


अवनीश त्रिवेदी "अभय"

शेर


जगह तमाम फ़क़त ढूढ़ता  तुझे  ही था।
तिरा निगार मुझे पर  कहीं नही मिलता।


अवनीश त्रिवेदी "अभय"


प्रिया सिंह लखनऊ

ये रंग होली का नहीं 
जम्हूरीयत का खून है 
ये रंग टोली का नहीं 
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं....
जम्हूरीयत का खून है...


इन्हें शौक कत्ले आम का
इन्हें शौक नशीले जाम का
धर्म ना है जात उनकी "बस"
भीड़ का ये... कानून है
सियासी ये जूनून है... 
ये रंग होली का नहीं .....
जम्हूरीयत का खून है.....


हिन्द ना ही मान उसका
हिन्द ना ही जान उसका
अस्तित्व का उसके पता नहीं 
बस खून खराबा मालूम है
सियासी ये जूनून है ....
ये रंग होली का नहीं......
जम्हूरीयत का खून है.....


ये चोट उनको लगा नहीं 
उन्हें घाव जरा हुआ नहीं 
उन्हें तब तलक कहाँ सूकून है 
सियासी ये जूनून है....
ये रंग होली का नहीं...
जम्हूरीयत का खून है...


उरूज का ये दस्तूर है 
कुर्सी पर उन्हें गुरूर है
उन्हें आवाम से क्या वास्ता 
उनका तो साफ हो ये रास्ता 
उन्हें उजाड़ का हुकुम है
सियासी ये जूनून है..
ये रंग होली का नहीं ...
जम्हूरीयत का खून है ..


 


Priya singh


श्याम कुँवर भारती [राजभर] कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,

हिन्दी होली गीत – मत तरसाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
अबकी फागुन तुमको लगाएंगे रंग |
मुझे मत तड़पाओ ना |
गोरे गालो गुलाल लगाएंगे हम सारा |
रंग देंगे कोरी चुनरिया गोरी हम तुम्हारा | 
डलवा लो रंग अबकी तुम रानी ,
मत छिप जाओ ना | 
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
आओ खेले होली दोनों खेल रहा जमाना |
बच ना पाओगी हमसे मत बनाओ बहाना |
भर लेंगे बाहो मे तुमको जानी |
तुम मत इठलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |
मस्ती मे झूमे होली हम खेले संग |
चुनरी भिंगा लो चोली रंगा लो रंग |
संतोष भारती का यही है कहना |
जालिम दिल ना जलाओ ना |
होली मे तुमको ना छोड़ेंगे हम ,
मुझे मत तरसाओ ना |


श्याम कुँवर भारती [राजभर]
कवि ,लेखक ,गीतकार ,समाजसेवी ,


 मोब /वाहत्सप्प्स -9955509286


गनेश रॉय "रावण" भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़

"शब्दों की महत्व"
"""''""""""""""""""""""""
शब्द - शब्द की फेर है
शब्दो का है खेल
जहाँ शब्द सीतल करै
होता दिलो का मेल


ना शब्दो की हाथ है
ना शब्दो की है पाँव
एक शब्द चूक हो जाये
देता अनेको घांव


शब्द सिखाती उच्च - नीच
शब्द सिखाती बैर
शब्दों का है बड़ा झमेला
शब्दों का है फेर


जो, शब्दो की गरिमा समझा
मिला मान सम्मान
जो शब्दो की गरिमा खोया
हुआ बड़ा अपमान


शब्दों में ही अहंकार है
शब्दों में ही विनम्रता
सदा शब्द का सम्मान करो
ऊँचा हो या नीचा


धन तो घटता - बड़ता है
रहता शब्द स्थिर
इसी शब्द की मंथन देखो
मिले शत्रु और पीर


शब्दों में ही ज्ञान है
शब्दों में ही सँस्कार
सारे जग को ढूंढ लो
शब्दों में ही संसार


मैं  "रावण"  अज्ञानी हूँ
ढूँढता दर - दर ज्ञान
छोटे - बड़ो के शब्दों से
मिले अनेको ज्ञान ।।


गनेश रॉय "रावण"
भगवानपाली,मस्तूरी, बिलासपुर, छत्तीसगढ़
9772727002
®●©●


डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"

हायकु


संग हमारे।
एक दूजे के होले।
मितवा प्यारे।



रेशम वाली
कुड़ियां अलबेली।
छमक छल्ली।


जिओ ,जीने दो।
बुरी नजर वालों।
खुदा के  बन्दो।


मझधार मे,
डूबते नाविकों से।
कैसी उम्मीदें।


वफा बेवक्त।
गैर की जरूरत।
हैवानियत।


डा.प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, "प्रेम"


स्वरचित व मौलिक रचना।


देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी

................पिता जन्मदाता है..................


माता जन्मदायिनी  है तो पिता  जन्मदाता है।
दोनों  के  योग  से  ही  संतान जन्म पाता है।।


माता  नौ  महीने  पेट  में बच्चे को  पालती है;
पिता  भरन - पोषण  की  उम्मीद जगाता है।।


खुद  कितने  ही  मुसीबतों  से  घिरे  रहें   पर ;
संतान की कोई तकलीफ़ सह नहीं  पाता है।।


जरूरत  हो  तो  खुद  आधा   पेट  खाएं  पर ;
संतान  को   सर्वोत्तम  भोजन   खिलाता  है।।


खुद अनपढ़ या कम पढ़े - लिखे  क्यों  न  रहें;
बच्चों को ऊंची से ऊंची  तालीम  दिलाता है।।


जीवन  भर  जिन  मुश्किलों  से  परेशान   रहे;
संतान को उन मुश्किलों से हमेशा बचाता है।।


माता - पिता  दोनों  ही  बराबर   हैं  "आनंद" ;
उत्तम  संतान  ही  दोनों का  कर्ज चुकाता है।।


--------------- देवानंद साहा "आनंद अमरपुरी"


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग उत्तराखंड

*मेरी कविता में जीवंतता हो*
*****************
मैं अपनी कविता के लिए तलाश रहा हूं,
शब्दों को बनाने वाले
अक्षर रेखाएं, मात्राएं
ताकि उनमें भर सकूं
जीवंतता, जिजीविषा
मैं अपनी कविता में
किसान की पीड़ा
गरीब मजदूर का दर्द
पहाड़ में खाली होते गांवो
सभी की करुण कथा
शामिल कराना चाहता हूं,
शब्दों को चुन-चुन कर
एक लतिका बनाना चाहता हूं,
आज प्रगति के नाम पर
जीवन कितना ऊबाऊ है
मैं अपनी कविता के माध्यम से
नव चेतना भरना चाहता हूं,
जीवन क्या है
अपनी कविता में शामिल कराना चाहता हूं।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


 


 


संजय जैन (मुम्बई)

*दिल तेरा है तो...*
विधा : कविता


तेरी तस्वीर को, 
सीने से लगा रखा है।
और तुझे अपने,
दिल में बसा रखा है।
इसलिए तो आंखे,
देखने को तरसती है।।


दिल तेरा है,
पर हक तो मेरा है।
क्योंकि तुमने मुझे,
अपना दिल जो दिया है।
मेरा मन जब भी करेगा,
तेरे दिलमें आता रहूंगा ।
बस ये दिल तुम,
किसी और को मत देना।।


मोहब्बत करना और,
उसे निभाना बड़ी बात है।
दिल के अरमानोंको,
जलाना भी बड़ी बात है।
वैसे तो बहुत लोग,
मोहब्बत करते है जिंदगी से।
परन्तु हकीकतकी कहानी, 
उनकी कुछ और कहती है।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
29/02/2020


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
     *"सागर"*
"सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल -
संग निभाना है।
नदियों सी विचारधारा ,
अलग अलग-
सागर में मिल जाना है।
अपनत्व की खातिर ही तो यहाँ,
साथी जीवन में-
जीना और मर जाना है।
टूट कर न बिखरेगे हम,
बादल बन जाना-
बरस फिर सागर में मिल जाना हैं।
इन्द्रधनुष के रंगों से ही,
इस जीवन को-
साथी यहाँ महकाना है।
सागर से गहरा प्रेम तेरा,
जीवन में हर पल-
संग निभाना है।।


        सुनील कुमार गुप्ता


एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।

*मशीन  सा  भावना शून्य*
*हो गया है आदमी।मुक्तक*


अपनेपन से हम अब दूर
अनजान   हो गए हैं।


अहम से भरेअब खुद हम
भगवान   हो  गए हैं।।


एक चलती फिरती मशीन
से  बन  गये  हैं  हम।


आज   हम  भावना  शून्य
बेजुबान  हो  गए  हैं।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो 9897071046
     8218685464


एस के कपूर श्री* *हंस।बरेली।*

*जादू सा असर दुआओं का ।*
*मुक्तक*


आँखों  में भरकर जरा तुम
पानी  तो    लेकर    जायो।


किसी के दर्द  में  तुम  नई
जिंदगानी  लेकर    जायो।।


स्नेह और प्रेम तो निष्प्राण
में  भी डाल  देते  हैं  जान।


पास उसके जरा  दुआओं
की कहानी   लेकर जायो।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री*
*हंस।बरेली।*
मो         9897071046
             8218685464


एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली।

*शब्द की महिमा(हाइकु)*


कभी हैं शब्द
कभी है वाचालता
कभी निःशब्द



शब्द से पीड़ा
शब्द से   मरहम
शब्द से बीड़ा



शब्द प्रेम है
शब्द से होता बैर
शब्द प्राण है


शब्द जीवन
शब्द से मिले ऊर्जा
शब्द से गम


शब्द नरम
शब्द विष अमृत
शब्द गरम


शब्द से दूरी
बात हो सदा अच्छी
यह जरूरी


शब्द से प्यार
शब्द से हो दुश्मनी 
शब्द से यार


*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली।*
मो 9897071046
     8218685464


एस के कपूर श्री* *हंस।।।।।।।।बरेली

*मामूली से ऊपर उठकर खास*
*हो गये।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।*


जी   कर  पूरा  जीवन भी 
गुमनाम इतिहास हो गये।


बोल  बोल   बड़े     वचन
बस  उपहास    हो   गये।।


पर  जिन्होंने   बदल    ही 
दी  तस्वीर    जिन्दगी की।


लेकर  जन्म     आम   ही  
वह   आज खास  हो गये।।


*रचयिता।।।एस के कपूर श्री*
*हंस।।।।।।।।बरेली।।।।।।।।।।*
मोब  9897071046।।।।।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।।।।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय

रोम रोम में देव बसे दिव्य देह को नमन करूँ।
मैं बनकर के गोपालाक धेनु तेरा वरण करूँ।।


तुम माता सुख की दाता तेरे अनन्त उपकार।
देव मनुज और यति सती करते है तुमसे प्यार।।


न जाने कितनी पोषकता तेरे दूध में भरी हुई।
तेरे दही मख्खन घृत से मिले है ऊर्जा नई नई।।


अमृतमय पंचगव्य अवर्चनीय गुणों की खान।
तुमसे ही गौ माता यहां थी मानव की पहचान।।


जो करेगा पालन पोषण होगा कृष्णा का मीत।
घेरेंगे न दुःख दरिद्रता वह जग को लेगा जीत।।


गोपालक भगवान की जय🙏🙏🙏🙏🙏🌸🌸🌸🌸🌸


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुरी

*परीक्षा*


परखने तुझे,
होगी परीक्षा तेरी,
कदम-कदम पर,
कहते जिसे,
इम्तहान।
ऐ नादान,
डर मत।
बढ़ा कदम,
करके हौसला,
तभी उड़ पाएगा,
ऊॅ॑ची उड़ान।
जो डर गया,
सो मर गया।
रख ये जुमला,
ज़हन में,
तभी,
राह होगी,
आसान।
और होंगे पूरे,
तेरे अरमान।


।। राजेंद्र रायपुरी।।


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रूद्रप्रयाग उत्तराखंड

हे मां वीणा धारणी
***************
हे मां शुभ्र वस्त्रधारिणी,
दिव्य दृष्टि निहारिणी,
पवित्रता की मूर्ति हो
हे मां वीणा धारणी।


पाती में वीणा धरै,
तुम कमल विहारिणी,
ज्ञान की देवी हो मां,
हे मां वीणा धारणी।


ज्ञान का वरदान दे,
दया का भाव दे मां,
कुपथ पर कभी न चलूं,
हे मां वीणा धारणी।


देश प्रेम भाव नित्य हो,
सरल सदाचारी बनूं ,
करूणा हृदय में रहे,
हे मां वीणा धारणी।
******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ. शेषधर त्रिपाठी                    पुणे, महाराष्ट्र

खंडहर बसंत(आज की नजर में
---------------------


वीरानियों पर टसुए बहाता,
जो उजड़ा हुआ चमन है।
बुलबुलों की चहक नदारद
अब खंडहर हुआ बसंत है।
दिलजलों ने दिल जलाकर,
खाक गुलशन कर दिया।
अब रहनुमा बन कह रहे हैं,
वाह जी!मैंने क्या किया।
होश में कब आएगी इंसानियत,
जो इंसान को ही रौंदती है।
लगा दी आग आशियाने में,
जो रह रह के दिलों में कौंधती है।
कैसा गुबार था ये घिनौना,
जो तेरा जमीर सिसकता भी नहीं,
तेरे कद का जो इंसान था,
अब हैवानियत से हो गया बौना।
इंसां जो भी गुबार है तेरे दिल में,
उस पर नफरतों का मुलम्मा न चढ़ा।
रहमो अमन से अब सीख रहना,
बस इंसान बनकर इंसानियत बढ़ा।
        © डॉ. शेषधर त्रिपाठी
                   पुणे, महाराष्ट्र


   डॉ शिव शरण "अमल"

राजनीतिक शुचिता की महती आवश्यकता
     गुरु गोविंद सिंह जी हमेशा एक हाथ में माला और एक हाथ में भाला की बात करते थे,
आज के समय में माला का अर्थ है धर्म और भाला का अर्थ है राजनीति,जब तक दोनों में समन्वय नहीं होगा,तब तक सम्पूर्ण क्रांति नहीं हो सकती,
      जिस तरह चाणक्य और चन्द्रगुप्त,राम और विश्वामित्र,कृष्ण और अर्जुन,शिवाजी और समर्थ गुरु रामदास,की युति से ही सम्पूर्ण क्रांति हुई थी उसी तरह आज भी जरूरी है ।
   धर्म के क्षेत्र में तो काफी काम हो रहा है ,अंध विश्वास खत्म हो रहा है,विज्ञान भी धर्म को मानने लगा है,   लेकिन राजनीतिक शुचिता के कोई प्रयाश नहीं हो रहे है,सभी पार्टियां सिर्फ वोट की राजनीति कर रही है,भाई_भतीजा वाद,जातिगत आरक्षण,अल्पसंख्यक और दलित तुष्टिकरण,पैसे का खेल ही चल रहा है, देश हित की चिंता किसी को भी नहीं है ।
     अधिकांश बुद्धिजीवी,चिंतक साहित्यकार राजनीति को अछूत मानते है, जबकि वास्तविकता यह है कि बिना राजनीतिक शुचिता के व्यक्ति,परिवार,समाज एवं राष्ट्र का कल्याण संभव नहीं है,अस्तु अब समय आ गया है कि धर्म सत्ता से राम,कृष्ण,चन्द्रगुप्त,शिवाजी,और अर्जुन निकले तथा देश की बागडोर सम्हाले ।
     इस विषय में  वेदमुर्ती, तपोनिष्ट,गायत्री सिद्ध,पंडित श्री राम शर्मा आचार्य द्वारा लिखित "वांग्मय क्रमांक 64"  (राष्ट्र समर्थ एवं शसक्त कैसे बने ) के सूत्रों का आधार लिया जा सकता है ।
     हमारा देश कालांतर मै जगत गुरु इसीलिए था क्योंकि उस समय राजनीति पर धर्म का मार्गदर्शन था,हरिश्चंद्र,दशरथ,राम,कृष्ण, चन्द्रगुप्त,शिवाजी,आदि सभी धर्म के अनुसार राजनीति करते थे ।
   अगर अच्छे लोग राजनीति में भाग नहीं लेंगे सिर्फ आलोचना ही करते रहेंगे तो भारत को पुनः विश्व गुरु बनाने का सपना कभी पूरा नहीं हो सकता ।
       
   डॉ शिव शरण "अमल"


कुमार कारनिक   (छाल, रायगढ़, छग)


   मनहरण घनाक्षरी
       *सच/सत*
        -------------
सच  में   कितने   लोग,
उम्र   भर   किये  भोग,
लग   गया   झूठा  रोग,
      फर्ज तो निभाईये।
0
सत  बात   बोल   तुम,
मन  आपा खोल  तुम,
सच्चाई  को   पहचान,
         धरम निभाईये।
0
कांटों मे  चलना  होगा,
हंस  के  टालना  होगा,
परीक्षा   लेती  सच्चाई,
         राह तो बनाईये।
0
कदम    आगे   बढ़ाना,
आप  न  डग - मगाना,
सच   के  खातिर  तुम,
         न लड़खड़ाईये।



                    *****


अवनीश त्रिवेदी"अभय"

इक मुक्तक


कई  गम दफन  हैं  दिल  में  कई  अरमान घायल हैं।
हमे कहीं और न भरमाओ हम तुम पर ही कायल हैं।
हमारे दिल को अब तो  कोई  भी सुर ही  नही  भाता।
जिसकी छम-छम से मिलता चैन वो तेरी ही पायल हैं।


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


नूतन लाल साहू

अलौकिक दुनिया
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
जब जब आती है,विपदा जगत में
थरथर कांपे, सारी दुनिया
अभिमान लोगो का, चुरचुर हो जाता है
सहम जाती है,कैसे ये दुनिया
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
खुद को विधाता,समझ गया था
माया में अंधा, हो चला था
सबको लुटने में, जो लगा था
अकल ठिकाने,अब आने लगी है
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
इतना अहंकार,क्यों करता है प्राणी
भगवान से भी तू,क्यों नहीं डरता है
जब जब पतन हुआ,मानवता का
पल में नाश हुआ है,जीवन का
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
युगों युगों से, ये होता आया है
फिर भी तू,समझ न पाया है
छोड़ के तू अपनी,सारी चतुराई
भजन कर तू,चरण कमल अविनासी
कैसा खेल रचा, मेरे दाता
तेरी महिमा, कोई समझ न पाया
सुमिरन कर हरिनाम,सुबह शाम
मानुष जनम,नहीं मिलना है बार बार
माता पिता गुरु, की सेवा कर ले
वो ही है प्राणी,जगत में सार
कैसा खेल रचा,मेरे दाता
तेरी महिमा,कोई समझ न पाया
नूतन लाल साहू


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"ऋतु"* (वर्गीकृत दोहे)
""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""""
◆चलता रहता वर्ष भर, छः ऋतुओं का चक्र।
लगता कभी सुहावना, लगे कभी कुछ वक्र।।१।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


◆एक-एक करके सभी, आते ऋतु प्रतिवर्ष।
सबका निज आनंद है, भरें हृदय में हर्ष।।२।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


◆उष्मा, वर्षा, शरद ऋतु, आये ऋतु हेमंत।
शिशिर, वसंत यथासमय, लेते लहर अनंत।।३।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


◆दाघ-निदाघ प्रचंड कब, बहे कभी जलधार।
शरद सुखद कब, ठंड कब, कभी वसंत बयार।।४।।
(१०गुरु, २८लघुवर्ण, पान दोहा)


◆भिन्न-भिन्न ऋतु भिन्नता, धरा करे शृंगार।
सबकी महती भूमिका, अनुकूलित संसार।।५।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


◆ईश रचित संसार में, सुख देते ऋतु सर्व।
सबकी निज पहचान है, होता जिस पर गर्व।।६।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


◆मन-मौसम बदलो नहीं, रखो सदा आबाद।
रचना कभी न त्रासदी, करना मत प्रतिवाद।।७।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


◆ऋतुओं से सीखो सभी, परिवर्तन का पाठ।
आना-जाना है लगा, हर दिन रहे न ठाठ।।८।।
(१६गुरु, १६लघुवर्ण, करभ दोहा)


◆ऋतुओं का स्वागत करो, इनको हितकर जान।
विधि का मानव को दिया, मौसम है वरदान।।९।।
(१३गुरु, २२लघुवर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


◆हर मौसम अनुकूल हो, करना मत अपकार।
हर पल नीयत नेक रख, करो विमल व्यवहार।।१०।।
(९गुरु, ३०लघुवर्ण, त्रिकल दोहा)
"""""''''""""""""""'"""""""""""''""""""""""""""
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
"""'"''''"""""""""""""""""""""""""""""""""""""


मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज

*मधु के मधुमय मुक्तक*
🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷
*मदद*
मदद किए हनुमान जी, सीता जी को खोज।
राम कृपा भी देखती, हिय में बसता ओज।
मदद भावना से बने, मानव ईश समान,
इसी भाव से मिल सके, भूखे जन को भोज।।


मदद ह्रदय से दीन की, सच्चा है इक दान।
सहज ह्रदय से वह धरे,इस जीवन का मान।
दूजों का दुख देख के, जो जन विचलित होय,
ईश्वर की संतान वो, वो ही हैं इंसान।।


शहर जला कर देखते, धुँआ उठा किस ओर।
स्वयं चाहते बैर बस, करे व्यर्थ में शोर।
एक लिए संकल्प जो, मदद भावना दीन,
वही मनुज बस श्रेष्ठ हैं, रात्रि साथ *मधु* भोर।।
मधु शंखधर स्वतंत्र प्रयागराज


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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...